अब कै[1] माधव, मोहिं उधारि।[2] मगन[3] हौं भव[4] अम्बुनिधि[5] में, कृपासिन्धु मुरारि॥ नीर अति गंभीर माया, लोभ लहरि तरंग। लियें जात अगाध जल में गहे ग्राह[6] अनंग॥[7] मीन इन्द्रिय अतिहि काटति, मोट[8] अघ सिर भार। पग न इत उत धरन पावत, उरझि मोह सिबार॥[9] काम क्रोध समेत तृष्ना, पवन अति झकझोर। नाहिं चितवत देत तियसुत नाम-नौका ओर॥ थक्यौ बीच बेहाल बिह्वल, सुनहु करुनामूल। स्याम, भुज गहि काढ़ि डारहु, सूर ब्रज के कूल॥[10]