हरि, तुम क्यों न हमारैं आये।
षटरस व्यंजन छाड़ि रसौई साग बिदुर घर खाये॥
ताकी कुटिया में तुम बैठे, कौन बड़प्पन पायौ।
जाति पांति कुलहू तैं न्यारो, है दासी कौ जायौ॥[1]
मैं तोहि कहौं अरे दुरजोधन, सुनि तू बात हमारी।
बिदुर हमारो प्रान पियारो तू विषया[2] अधिकारी॥
जाति-पांति हौं सबकी जानौं, भक्तनि भेद न मानौं।
संग ग्वालन के भोजन कीनों, एक प्रेमव्रत ठानौं॥[3]
जहं अभिमान तहां मैं नाहीं, भोजन बिषा सो लागे।
सत्य पुरुष बैठ्यो घट[4] ही में, अभिमानी को त्यागे॥
जहं जहं भीर[5] परै भक्तन पै पइ पयादे धाऊं।
भक्तन के हौं संग फिरत हौं, भक्तनि हाथ बिकाऊं॥
भक्तबछलता[6] बिरद[7] हमारो बेद उपनिषद गायौ।
सूरदास प्रभु निजजन-महिमा गावत पार न पायौ॥