कहियौ जसुमति की आसीस। जहां रहौ तहं नंदलाडिले, जीवौ कोटि बरीस॥[1] मुरली दई, दौहिनी[2] घृत भरि, ऊधो धरि लई सीस। इह घृत तौ उनहीं सुरभिन[3] कौ जो प्रिय गोप-अधीस॥[4] ऊधो, चलत सखा जुरि आये[5] ग्वाल बाल दस बीस। अबकैं ह्यां ब्रज फेरि बसावौ सूरदास के ईस॥