वृच्छन[1] से मत ले, मन तू वृच्छन से मत ले।
काटे वाको[2] क्रोध न करहीं, सिंचत न करहीं नेह॥
धूप सहत अपने सिर ऊपर, और को[3] छाँह करेत॥
जो वाही को पथर चलावे, ताही को फल देत॥
धन्य-धन्य ये पर-उपकारी, वृथा[4] मनुज की देह॥
सूरदास प्रभु कहँ लगि[5] बरनौं,[6] हरिजन[7] की मत[8] ले॥