मन तोसों कोटिक बार कहीं। समुझि न चरन गहे गोविन्द के, उर अघ-सूल सही॥[1] सुमिरन ध्यान कथा हरिजू की, यह एकौ न रही।[2] लोभी लंपट विषयनि सों हित,[3] यौं तेरी निबही॥ छांड़ि कनक मनि रत्न अमोलक, कांच की किरच[4] गही। ऐसो तू है चतुर बिबेकी, पय तजि पियत महीं॥[5] ब्रह्मादिक रुद्रादिक रबिससि देखे सुर सबहीं। सूरदास, भगवन्त-भजन बिनु, सुख तिहुं लोक नहीं॥