जसोदा हरि पालनैं झुलावै। हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ-जोइ कछु गावै ॥ मेरे लाल कौं आउ निंदरिया, काहैं न आनि सुवावै । तू काहैं नहिं बेगहिं आवै, तोकौं कान्ह बुलावै ॥ कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै । सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि, करि-करि सैन बतावै ॥ इहिं अंतर अकुलाइ उठे हरि, जसुमति मधुरैं गावै । जो सुख सूर अमर-मुनि दुरलभ, सो नँद-भामिनि पावै ॥