जसोदा, तेरो भलो हियो है माई।
कमलनयन माखन के कारन बांधे ऊखल लाई॥
जो संपदा[1] दैव मुनि दुर्लभ सपनेहुं दई न दिखाई।
याही तें तू गरब भुलानी घर बैठें निधि पाई॥
सुत काहू कौ रोवत देखति दौरि लेति हिय लाई।
अब अपने घर के लरिका पै इती कहा जड़ताई॥[2]
बारंबार सजल लोचन ह्वै चितवत कुंवर कन्हाई।
कहा करौं, बलि जाउं, छोरती तेरी सौंह[3] दिवाई॥
जो मूरति जल-थल[4] में व्यापक[5] निगम न खोजत पाई।
सोई महरि अपने आंगन में दै-दै चुटकि नचाई॥
सुर पालक सब असुर संहारक त्रिभुवन[6] जाहि डराई।
सूरदास, प्रभु की यह लीला निगम नेति[7] नित गई॥