ऐसैं मोहिं और कौन पहिंचानै। सुनि री सुंदरि, दीनबंधु बिनु कौन मिताई[1] मानै॥ कहं हौं कृपन[2] कुचील[3] कुदरसन,[4] कहं जदुनाथ गुसाईं। भैंट्यौ हृदय लगाइ प्रेम सों उठि अग्रज की नाईं॥ निज आसन बैठारि परम रुचि, निजकर चरन पखारे। पूंछि कुसल स्यामघन सुंदर सब संकोच निबारे॥[5] लीन्हें छोरि चीर[6] तें चाउर कर गहि मुख में मेले।[7] पूरब कथा सुनाइ सूर प्रभु गुरु-गृह बसे अकेले॥