माधवजू, जो जन तैं बिगरै।
तउ[1] कृपाल करुनामय केसव, प्रभु नहिं जीय धर॥
जैसें जननि जठर अन्तरगत,[2] सुत अपराध करै।
तोऊ जतन करै अरु पोषे, निकसैं अंक[3] भरै॥
जद्यपि मलय बृच्छ जड़ काटै, कर कुठार पकरै।
तऊ सुभाव सुगंध सुशीतल, रिपु[4] तन ताप हरै॥
धर[5] विधंसि नल[6] करत किरसि[7] हल बारि बांज बिधरै।
सहि सनमुख तउ सीत उष्ण कों सोई सफल करै॥
रसना द्विज[8] दलि दुखित होति बहु, तउ रिस कहा करै।
छमि सब लोभ जु छांड़ि छवौ रस लै समीप संचरै॥
करुना करन दयाल दयानिधि निज भय दीन डर।
इहिं कलिकाल व्याल मुख ग्रासित सूर सरन उबरे॥