मो परतिग्या[1] रहै कि जाउ। इत पारथ[2] कोप्यौ है हम पै, उत भीषम भटराउ॥[3] रथ तै उतरि चक्र धरि कर प्रभु सुभटहिं सन्मुख आयौ। ज्यों कंदर[4] तें निकसि सिंह झुकि[5] गजजुथनि पै धायौ॥ आय निकट श्रीनाथ बिचारी, परी तिलक पर दीठि।[6] सीतल भई चक्र की ज्वाला, हरि हंसि दीनी पीठि॥ "जय जय जय जनबत्सल स्वामी," सांतनु-सुत यौं भाखै।[7] "तुम बिनु ऐसो कौन दूसरो, जौं मेरो प्रन राखै॥" "साधु साधु[8] सुरसरी-सुवन[9] तुम मैं प्रन लागि डराऊं।" सूरदास, भक्त दोऊ दिसि,[10] का पै चक्र चलाऊं॥