मोहिं प्रभु, तुमसों होड़[1] परी। ना जानौं करिहौ जु कहा तुम, नागर नवल हरी॥ पतित समूहनि उद्धरिबै कों तुम अब जक[2] पकरी। मैं तो राजिवनैननि दुरि गयो[3] पाप पहार दरी॥[4] एक अधार साधु संगति कौ, रचि पचि के संचरी। भई न सोचि सोचि जिय राखी, अपनी धरनि[5] धरी॥ मेरी मुकति बिचारत हौ प्रभु, पूंछत पहर घरी। स्रम तैं तुम्हें पसीना ऐहैं, कत यह जकनि करी॥[6] सूरदास बिनती कहा बिनवै, दोषहिं देह भरी। अपनो बिरद संभारहुगै तब, यामें सब निनुरी॥[7]