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<blockquote>'द्वय्क्षांस्त्रयक्षार्ल्लेटाक्षान् नानादिग्भ्य: समागतान् औष्णीकानन्तवासांश्च रोमकान् पुरुषादकान्। एकपादांश्चतत्राहमपश्यं द्वारिवातितान्'।<ref>[[महाभारत]], [[सभापर्व महाभारत|सभापर्व]] 51, 17-18.</ref></blockquote>


यहाँ [[दुर्योधन]] ने युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में विदेशों से उपहार लेकर आने वाले विभिन्न देशवासियों का वर्णन किया है। इनमें 'द्वय्क्ष' तथा 'त्र्यक्ष' देशों से आए हुए लोग भी शामिल थे। ये लोग भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा के परिवर्ती प्रदेशों के निवासी माने गये हैं। कुछ विद्वानों के मत में त्र्यक्ष, 'तरखान' (दक्षिणी [[रूस]] में स्थित) का नाम है और 'द्वय्क्ष' बदख़शां का। उपर्युक्त उद्धरण में इन लोगों को औष्णीय या पगड़ी धारण करने वाला बताया गया है, जो इन ठंडे प्रदेशों के निवासियों के लिए स्वाभाविक बात मानी जा सकती है।
यहाँ [[दुर्योधन]] ने युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में विदेशों से उपहार लेकर आने वाले विभिन्न देशवासियों का वर्णन किया है। इनमें 'द्वय्क्ष' तथा 'त्र्यक्ष' देशों से आए हुए लोग भी शामिल थे। ये लोग भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा के परिवर्ती प्रदेशों के निवासी माने गये हैं। कुछ विद्वानों के मत में त्र्यक्ष, '[[तरखान]]' (दक्षिणी [[रूस]] में स्थित) का नाम है और 'द्वय्क्ष' बदख़शां का। उपर्युक्त उद्धरण में इन लोगों को औष्णीय या पगड़ी धारण करने वाला बताया गया है, जो इन ठंडे प्रदेशों के निवासियों के लिए स्वाभाविक बात मानी जा सकती है।


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10:35, 15 सितम्बर 2012 का अवतरण

त्र्यक्ष तथा 'द्वय्क्ष' देशों से आये हुए लोगों का उल्लेख महाभारत में हुआ है। ये लोग पाण्डव युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भाग लेने आये थे। प्रसंग से ये लोग भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा के परिवर्ती प्रदेशों के निवासी जान पड़ते हैं।

'द्वय्क्षांस्त्रयक्षार्ल्लेटाक्षान् नानादिग्भ्य: समागतान् औष्णीकानन्तवासांश्च रोमकान् पुरुषादकान्। एकपादांश्चतत्राहमपश्यं द्वारिवातितान्'।[1]

यहाँ दुर्योधन ने युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में विदेशों से उपहार लेकर आने वाले विभिन्न देशवासियों का वर्णन किया है। इनमें 'द्वय्क्ष' तथा 'त्र्यक्ष' देशों से आए हुए लोग भी शामिल थे। ये लोग भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा के परिवर्ती प्रदेशों के निवासी माने गये हैं। कुछ विद्वानों के मत में त्र्यक्ष, 'तरखान' (दक्षिणी रूस में स्थित) का नाम है और 'द्वय्क्ष' बदख़शां का। उपर्युक्त उद्धरण में इन लोगों को औष्णीय या पगड़ी धारण करने वाला बताया गया है, जो इन ठंडे प्रदेशों के निवासियों के लिए स्वाभाविक बात मानी जा सकती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

ऐतिहासिक स्थानावली |लेखक: विजयेन्द्र कुमार माथुर |प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर |पृष्ठ संख्या: 419 |

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