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'''श्रंगवान''' को [[विष्णु पुराण]]<ref>विष्णु 2,2,10</ref> में श्रंगी कहा गया है-‘नीलः श्वेतश्च श्रंगी च उत्तररे वर्षपर्वताः’।
*पौराणिक भूगोल के अनुसार मेरु के उत्तर की ओर एक पर्वत श्रेणी जो पूर्व-पश्चिम की ओर समुद्र तक विस्तृत है।  
*पौराणिक भूगोल के अनुसार मेरु के उत्तर की ओर एक पर्वत श्रेणी जो पूर्व-पश्चिम की ओर समुद्र तक विस्तृत है।  
*श्रंगवान को विष्णु<ref>विष्णु 2,2,10</ref> में श्रंगी कहा गया है-‘नीलः श्वेतश्च श्रंगी च उत्तररे वर्षपर्वताः’।
*[[महाभारत]] के अनुसार श्रंगवान के तीन शिखर हैं, एक मणिमय दूसरा सुवर्णमय और तीसरा सर्वरत्नमय है।  
*[[महाभारत]] के अनुसार श्रंगवान के तीन शिखर हैं, एक मणिमय दूसरा सुवर्णमय और तीसरा सर्वरत्नमय है।  
*वहाँ स्वयंप्रभा देवी नित्य निवास करती हैं।  
*वहाँ स्वयंप्रभा देवी नित्य निवास करती हैं।  
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तत्र स्वयं प्रभादेवी नित्यं वसति शांडिली, उत्तरणतु श्रंगस्य समुद्रान्ते जनाधिप।  
तत्र स्वयं प्रभादेवी नित्यं वसति शांडिली, उत्तरणतु श्रंगस्य समुद्रान्ते जनाधिप।  
वर्षमैरावतं नाम तस्माच्छंगमतः परम्, न तत्र सूर्यस्तपति न जीर्यन्ते च मानवाः’।<ref>भीष्म 8,8-9-10-11</ref></poem>  
वर्षमैरावतं नाम तस्माच्छंगमतः परम्, न तत्र सूर्यस्तपति न जीर्यन्ते च मानवाः’।<ref>भीष्म 8,8-9-10-11</ref></poem>  
*जैन ग्रंथ जंबूद्वीप-प्रज्ञप्ति में श्रंगवान की जंबूद्वीप के 6 वर्ष पर्वतों में गणना की गई है।
*जैन ग्रंथ [[जंबूद्वीप]]-प्रज्ञप्ति में श्रंगवान की जंबूद्वीप के 6 वर्ष पर्वतों में गणना की गई है।
 




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15:02, 9 अगस्त 2014 के समय का अवतरण

श्रंगवान को विष्णु पुराण[1] में श्रंगी कहा गया है-‘नीलः श्वेतश्च श्रंगी च उत्तररे वर्षपर्वताः’।

  • पौराणिक भूगोल के अनुसार मेरु के उत्तर की ओर एक पर्वत श्रेणी जो पूर्व-पश्चिम की ओर समुद्र तक विस्तृत है।
  • महाभारत के अनुसार श्रंगवान के तीन शिखर हैं, एक मणिमय दूसरा सुवर्णमय और तीसरा सर्वरत्नमय है।
  • वहाँ स्वयंप्रभा देवी नित्य निवास करती हैं।
  • श्रंगवान के उत्तर समुद्र के निकट ऐरावतवर्ष है जहाँ सूर्य तापरहित है।
  • वहां के मनुष्य कभी बूढ़े नहीं होते -

‘श्रंगाणि च विचित्राणि त्रीण्येव मनुजाधिप, एकं मणिमयं तत्र तथैकं रौक्ममद्भुतम, सर्वरत्नमयं चैकं भवनैरुपशोभितम्।
तत्र स्वयं प्रभादेवी नित्यं वसति शांडिली, उत्तरणतु श्रंगस्य समुद्रान्ते जनाधिप।
वर्षमैरावतं नाम तस्माच्छंगमतः परम्, न तत्र सूर्यस्तपति न जीर्यन्ते च मानवाः’।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विष्णु 2,2,10
  2. भीष्म 8,8-9-10-11

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