धनुष्कोटि
धनुष्कोटि रामेश्वरम, मद्रास से लगभग 12 मील (लगभग 19.2 कि.मी.) की दूरी पर दक्षिण की ओर स्थित है। यहाँ अरब सागर और हिंद महासागर का संगम होने के कारण इसे श्राद्धतीर्थ मानकर पितृकर्म करने का विधान है। यहाँ लक्ष्मणतीर्थ में भी मुण्डन और श्राद्ध करने का प्रचलन है। इस स्थान पर समुद्र में स्नान करने के बाद अर्ध्यदान किया जाता है। यहाँ भारतीय प्राय:द्वीप की नोक समुद्र के अन्दर तक चली गई प्रतीत होती है।
कथा
दोनों ओर से दो समुद्र 'महोदधि' और 'रत्नाकर' धनुष्कोटि में मिलते हैं। इस स्थान का संबंध श्रीराम चंद्र जी से बताया जाता है। कथा है कि भगवान श्रीराम जब लंका पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त भगवती सीता के साथ वापस लौटने लगे, तब नवनियुक्त लंकापति विभीषण ने प्रार्थना की- "हे प्रभो! आपके द्वारा बनवाया गया यह सेतु बना रहा तो भविष्य में इस मार्ग से भारत के बलाभिमानी राजा मेरी लंका पर आक्रमण करेंगे।" लंका नरेश विभीषण के अनुरोध पर श्रीरामचन्द्र जी ने अपने धनुष की कोटि (नोक) से सेतु को एक स्थान से तोडकर उस भाग को समुद्र में डुबो दिया। इससे उस स्थान का नाम 'धनुष्कोटि' हो गया।
तीर्थ स्थल
इस पतितपावन धनुष्कोटि तीर्थ में जप-तप, स्नान-दान आदि करने से महापातकों का नाश, मनोकामना की पूर्ति तथा सद्गति मिलती है। धनुष्कोटि का दर्शन करने वाले व्यक्ति के हृदय की अज्ञानमयी ग्रंथि कट जाती है, उसके सब संशय दूर हो जाते हैं और संचित पापों का नाश हो जाता है। यहाँ पिण्डदान करने से पितरों को कल्पपर्यन्ततृप्ति रहती है। धनुष्कोटि तीर्थ में पृथ्वी के दस कोटि सहस्र (एक खरब) तीर्थों का वास है।
- स्कंदसेतु माहात्म्य[1] में इस स्थान को पुण्यतीर्थ माना गया है-
'दक्षिणाम्बुनिधी पुण्ये रामसेतौ विमुक्तिदे, धनुष्कोटिरिति ख्यातं तीर्थमस्ति विमुक्तिदम्'।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
ऐतिहासिक स्थानावली |लेखक: विजयेन्द्र कुमार माथुर |प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर |पृष्ठ संख्या: 462 |
- ↑ स्कंदसेतु माहात्म्य 33, 65
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