महाभारत आदि पर्व अध्याय 13 श्लोक 1-19
त्रयोदश (13) अध्याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
शौनकजी ने पूछा—सूतजी ! राजाओं में श्रेष्ठ जनमेजय ने किसलिये सर्पसत्र द्वारा सर्पो का अन्त किया? यह प्रसंग मुझसे कहिये। सूतनन्दन ! इस विषय की सब बातों का यथार्थ रूप से वर्णन कीजिये। जप-यज्ञ करने वाले पुरुषों में श्रेष्ठ विप्रवर आस्तीक ने किसलिये सर्पों को प्रज्वलित अग्नि में जलने से बचाया और वे राजा जनमेजय, जिन्होंने सर्पसत्र का आयोजन किया था, किसके पुत्र थे? तथा द्विजवंश शिरोमणि आस्तीक भी किसके पुत्र थे? यह मुझे बताइये।
उग्रश्रवाजी ने कहा—ब्रह्मन ! आस्तीक का उपाख्यान बहुत बड़ा है। वक्ताओं में श्रेष्ठ ! यह प्रसंग जैसे कहा जाता है, वह सब पूरा-पूरा सुनो। शौनकजी ने कहा— सूतनन्दन ! पुरातन ऋषि एवं यशवस्वी ब्राह्मण आस्तीक की इस मनोरम कथा को मैं पूर्ण रूप से सुनना चाहता हूँ। उग्रश्रवाजी ने कहा—शौनकजी ! ब्राह्मण लोग इस इतिहास को बहुत पुराना बताते हैं। पहले मेरे पिता लोमहर्षण जी ने, जो व्यास जी के मेधावी शिष्य थे, ऋषियों के पूछने पर साक्षात श्रीकृष्ण द्वैपायन (व्यास) के कहे हुए इस इतिहास का नैमिषारण्यवासी ब्राह्मणों के समुदाय में वर्णन किया था। उन्हीं के मुख से सुनकर मैं भी इसका यथावत वर्णन करता हूँ। शौनकजी ! यह आस्तीक मुनि का उपाख्यान सब पापों का नाश करने वाला है। आपके पूछने पर मैं इसका पूरा-पूरा वर्णन कर रहा हूँ। आस्तीक के पिता प्रजापति के समान प्रभावशाली थे। ब्रह्मचारी होने के साथ ही उन्होंने आहार पर भी संयम कर लिया था। वे सदा उग्र तपस्या में संलग्न रहते थे। उनका नाम था जरत्कारू। वे ऊर्ध्वरेता और महान् ऋषि थे।[1]यायावरों में उनका स्थान सबसे ऊँचा था। वे धर्म के ज्ञाता थे। एक समय तपोबल से सम्पन्न उन महाभाग जरत्कारू ने यात्रा प्रारम्भ की। वे मुनिवृत्ति से रहते हुए जहाँ शाम होती वहीं डेरा डाल देते थे। वे सब तीर्थो में स्नान करते हुए धूमते थे। उन महातेजस्वी मुनि ने कठोर व्रतों की ऐसी दीक्षा लेकर यात्रा प्रारम्भ की थी, जो अजितेन्द्रिय पुरुषों के लिये अत्यन्त दुःसाध्य थी। वे कभी वायु पीकर रहते और कभी भोजन का सर्वथा त्याग करके अपने शरीर को सुखाते रहते थे। उन महर्षि ने निंद्रा पर भी विजय प्राप्त कर ली थी, इसलिये उनकी पलक नहीं लगती थी। इधर-उधर विचरण करते हुए वे प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी जान पड़ते थे। घूमते-घूमते किसी समय उन्होंने अपने पितामहों को देखा जो ऊपर को पैर और नीचे को सिर किये एक विशाल गडढ़े में लटक रहे थे। उन्हें देखते ही जरत्कारू ने उनसे पूछा-‘आप लोग कौन हैं, जो इस गड्ढे में नीचे को मुख किये लटक रहे हैं।‘आप जिस वीरणस्तम्ब (खस नाम तिनकों के समूह) को पकड़कर लटक रहे हैं, उसे इस गड्ढे़ में गुप्त रूप से नित्य- निवास करने वाले चूहे ने सब ओर से प्रायः खा लिया है।'[2]
पितर बोले- ब्रह्मन ! हम लोग कठोर व्रत का पालन करने वाले यायावर नामक मुनि हैं। अपनी सन्तान परम्परा का नाश होने से हम नीचे पृथ्वी पर गिरना चाहते हैं। हमारी एक संतति बच गयी है, जिसका नाम है जरत्कारू। हम भाग्यहीनों की वह अभागी सन्तान केवल तपस्या में ही संलग्न है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यायावर का अर्थ है सदा विचरने वाला मुनि। मुनिवृत्ति से रहते हुए सदा इधर-उधर घूमते रहने वाले गृहस्थ ब्राह्मणों के एक समूह विशेष की यायावर संज्ञा है। ये लोग एक गाँव में एक रात से अधिक नहीं ठहरते और पक्ष में एक बार अग्निहोत्र करते हैं। पक्षहोम सम्प्रदाय की प्रवृत्ति इन्हीं से हुई है। इनके विषय में भारद्वाज का वचन इस प्रकर मिलता है- यायावर नाम ब्राह्मणा आसंस्ते अर्ध मासादग्निहोत्रभजुह्न्। यायावर लोग घूमते-घूमते जहाँ संध्या हो जाती है वही ठहर जाते हैं।
- ↑ यहाँ भूलोक ही गड्ढा है। स्वर्गवासी पितरों को जो नीचे गिरने का भय लगा रहता है उसी को सूचित करने के लिये यह कहा गया है कि उनके पैर ऊपर थे और सिर नीचे। काल ही चूहा है और वंश परम्परा ही वीरणास्तम्व (खस नामक तिनकों का समुदाय) है। उस वंश में केवल जरत्कारू बच गये थे और अन्य सब पुरुष काल के अधीन हो चुके थे। यही व्यक्त करने के लिये चूहे के द्वारा तिनकों के समुदाय को सब ओर से खाया हुआ बताया गया है। जरत्कारू के विवाह न करने से उस वंश का वह शेष अंश भी नष्ट होना चाहता था। इसीलिये पितर व्याकुल थे और जरत्कारू को इसका बोध कराने के लिये उन्होंने इस प्रकार दर्शन दिया था।