महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 54 श्लोक 1-18
चतुष्पञ्चाशत्तम (54) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
भगवान श्रीकृष्ण का उत्तंक से अध्यात्मतत्त्व का वर्णन करना तथा दुर्योधन के अपराध को कौरवों के विनाश का कारण बतलाना
उत्तंक ने कहा- केशव! जनार्दन! तुम यथार्थरूप से उत्तम अध्यात्मतत्त्व का वर्णन करो। उसे सुनकर मैं तुम्हारे कल्याण के लिये आशीर्वाद दूँगा अथवा शाप प्रदान करूँगा। श्रीकृष्ण ने कहा-ब्रह्मर्षे! आपको यह विदित होना चाहिए कि तमोगुण, रजोगुण और सत्वगुण- ये सभी भाव मेरे ही आश्रित हैं। रुद्रों और वसुओं को भी आप मुझसे ही उत्पन्न जानिये। सम्पूर्ण भूत मुझमें हैं और सम्पूर्ण भूतों में मैं स्थित हूूँ। इस बात को आप अच्छी तरह समझ लें। इसमें आपको संशय नहीं होना चाहिये। विप्रवर! सम्पूर्ण दैत्यगण, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, नाग और सप्सराओं को मुझ से ही उत्पन्न जानिये। विद्वान् लोग जिसे सत्-असत्, व्यक्त अव्यक्त और क्षर-अक्षर कहते हैं, यब सब मेरा ही स्वरूप है। मुने! चारों आश्रमों में जो चार प्रकार के धर्म प्रसिद्ध है तथा जो सम्पूर्ण वेदोक्त कर्म हैं, उन सबको मेरा स्वरूप ही समझिये। असत्, सदसत् तथा उससे भी परे जो अव्यक्त जगत् है, वह भी मुझ सनातन देवाधिदेव से पृथक् नहीं है। भृगुश्रेष्ठ! ॐकार से आरम्भ होने वाले चारों वेद मुझे ही समझिये। यज्ञ में यूप, सोम, चरु देवताओं को तृप्त करने वाला होम, होता और हवन सामग्री भी मुझे ही जानिये। भृगुनन्दन! अध्वर्यु, कल्पक और अच्छी प्रकार संस्कार किया हुआ हविष्य- ये सब मेरे ही स्वरूप हैं। बड़े-बड़े यज्ञों में उद्गाता उच्च स्वर से सामगान करके मेरी ही स्तुति करते हैं। ब्रह्मन्! प्रायश्चित कर्म में शान्तिपाठ तथा मंगलपाठ करने वाले ब्राह्मण सदा मुझ विश्वकर्मा का ही स्तवन करते है। द्विजश्रेष्ठ! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि सम्पूर्ण प्राणियों पर दया करना रूप जो धर्म है, वह मेरा परमप्रिय ज्येष्ठ पुत्र है। मेरे मन से उसका प्रादुर्भाव हुआ है। भार्गव! उस धर्म में प्रवृत्त होकर जो पाप कर्मों से निवृत्त हो गये हैं ऐसे मनुष्यों के साथ मैं सदा निवास करता हूँ। साधुशिरोमणे! मैं धर्म की रक्षा और स्थापना के लिये तीनों लोकों में बहुत सी योनियों में अवतार धारण करके उन-उन रूपों और वेषों द्वारा तदनुरूप बर्ताव करता हूँ। मैं ही विष्णु, मैं ही ब्रह्मा और मैं ही इन्द्र हूँ। सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति और प्रलय का कारण भी मैं ही हूँ। समस्त प्राणि समुदाय की सृष्टि और संहार भी मेरे ही द्वारा होते हैं। अधर्म में लगे हुए सभी मनुष्यों को दण्ड देने वाला और अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वला ईश्वर मैं ही हूँ। जब-जब युग का परिवर्तन होता है, तब-तब मैं प्रजा की भलाई के लिये भिन्न-भिन्न योनियों में प्रविष्ट होकर धर्म मर्यादा की स्थापना करता हूँ। भृगुनन्दन! जब मैं देवयोनि में अवतार लेता हूँ, तब देवताओं की भाँति सारे आचार-विचार का पालन करता हूँ, इसमें संशय नहीं है। भृगुकुल को आनन्द प्रदानकरने वाले महर्षे! जब मैं गन्धर्व योनि में प्रकट होता हूँ, तब मेरे सारे आचार-विचार गन्धर्वों के ही समान होते हैं, इसमें संदेह नहीं है।
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