महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 28 श्लोक 1-18

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अष्टाविंश (28) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)

महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: अष्टाविंश अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

महर्षि व्यास का धृतराष्ट्र से कुशल पूछते हुए विदुर और युधिष्ठिर की धर्मरूपता का प्रतिपादन करना और उनसे अभिष्ट वस्तु माँगने के लिये कहना

वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! तदनन्तर महात्मा पाण्डवों के बैठ जाने पर सत्यवतीनन्दन व्यास ने इस प्रकार पूछा ‘महाबाहु धृतराष्ट्र ! तुम्हारी तपस्या बढ़ रही है न ? नरेश्वर ! वनवास में तुम्हारा मन तो लगता है न ? ‘राजन् ! अब कभी तुम्हारे मन में अपने पुत्रों के मारे जाने का शोक तो नहीं होता? निष्पाप नरेश ! तुम्हारी समस्त ज्ञानेन्द्रियाँ निर्मल तो हो गयी हैं न ? ‘क्या तुम अपनी बुद्धि को दृढ़ करके वनवास के कठोर नियमों का पालन करते हो ? बहू गान्धारी कभी शोक के वशीभूत तो नहीं होती ? ‘गान्धारी बड़ी बुद्धिमती और महाविदुषी है । यह देवी धर्म और अर्थ को समझनेवाली तथा जन्म -मरण के तत्त्व को जाननेवाली है । इसे तो कभी शोक नहीं होता है। ‘राजन् ! जो अपने पुत्रों को त्यागकर गुरूजनों की सेवा में लगी हुई है, वह कुन्ती क्या अहंकार शून्य होकर तुम्हारी सेवा-शुश्रूषा करती है? ‘क्या तुम ने धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर का अभिनन्दन किया है? भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव को भी धीरज बँधाया है ? ‘नरेश्वर ! क्या इन्हें देखकर तुम प्रसन्न होते हो ? क्या इनकी ओर से मन की मैल दूर हो गयी है ? क्या ज्ञान -सम्पन्न होने के कारण तुम्हारे हृदय का भाव शुद्ध हो गया है? ‘महाराज ! भरतनन्‍दन ! किसी से वैर न रखना, सत्‍य बोलना और क्रोध को सर्वथा त्‍याग देना – ये तीन गुण सब प्राणियों में श्रेष्ठ माने गये हैं। ‘भारत ! वन में उत्पन्न हुआ अन्न तुम्हारे वश में रहे अथवा तुम्हें उपवास करना पड़े, सभी दशाओं से वनवास से तुम्हें मोह तो नहीं होता हैं ? ‘राजेन्द्र ! महात्मा विदुर के, जो साक्षात् महामना धर्म के स्वरूप थे, इस विधि से परलोकगमन का समाचार तो तुम्हें ज्ञात हुआ ही होगा। ‘माण्डव्य मुनि के शाप से धर्म ही विदुररूप में अवतीर्ण हुए थे । वे परम बुद्धिमान्, महान् योगी, महात्‍मा और महामनस्‍वी थे। ‘देवताओं में बृहस्पति और असुरों में शुक्राचार्य भी वैसे बुद्धिमान नहीं हैं, जैसे पुरुष प्रवर विदुर थे। ‘माण्डव्य ऋषि ने चिरकाल संचित किये हुए तपोबल का क्षय करके सनातन धर्मदेव को (शाप देकर) पराभूत किया था। ‘मैंने पूर्वकाल में ब्रह्माजी की आज्ञा के अनुसार अपने तपोबल से विचित्रवीर्य के क्षेत्र (भार्या) में उस परम बुद्धिमान विदुर को उत्पन्न किया था। ‘महाराज ! तुम्हारे भाई विदुर देवताओं के भी देवता सनातन धर्म थे । मन के द्वारा धर्म का धारण और ध्यान किया जाता है, इसलिये विद्वान् पुरुष उन्हें धर्म के नाम से जानते हैं। ‘जो सत्य, इन्द्रियसंयम, मनोनिग्रह, अहिंसा औैर दान के रूप में सेवित होने पर जगत् के अभ्युदय का साधक होता है, वह सनातन धर्म विदुर से भिन्न नहीं है। ‘जिस अमित बुद्धिमान और प्राज्ञ देवता ने योगबल से कुरूराज युधिष्ठिर को जन्म दिया था, वह धर्म विदुर का ही स्वरूप है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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