महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 36 श्लोक 1-22

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षट्च्‍चत्रिश (36) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व: षट्च्‍चत्रिश अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद

अभिमन्‍यु का उत्‍साह तथा उसके द्वारा कौरवों की चतुरगिणी सेना का संहार

संजय कहते है – भारत ! बुद्धिमान् युधिष्ठिर का पूर्वोक्‍त वचन सुनकर सुभद्राकुमार अभिमन्‍यु ने अपने सारथी को द्रोणाचार्य की सेना की ओर चलने का आदेश दिया । राजन् ! चलो चलो ऐसा कहकर अभिमन्‍यु के बारंबार प्रेरित करने पर सारथि ने उससे इस प्रकार कहा । आयुष्‍मान ! पाण्‍डवों ने आपके ऊपर यह बहुत बड़ा भार रख दिया है । पहले आप क्षणभर रूककर बुद्धिपूर्वक अपने कर्तव्‍य का निश्‍चय कर लीजिये । उसके बाद युद्ध कीजिये । द्रोणाचार्य अस्‍त्रविद्या के विद्वान् है और उत्‍तम अस्‍त्रों के अभ्‍यास के लिये उन्‍होंने विशेष परिश्रम किया है । इधर आप अत्‍यन्‍त सुख एवं लाड़ प्‍यार में पले है । युद्ध की कला में आप उनके जैसे विज्ञ नहीं है । तब अभिमन्‍यु ने हंसते-हंसते सारथि से इस प्रकार कहा- सारथे ! इन द्रोणाचार्य अथवा सम्‍पूर्ण क्षत्रियमण्‍डल की तो बात ही क्‍या, मैं तो ऐरावत पर चढ़े हुए सम्‍पूर्ण देवगणों सहित इन्‍द्र के अथवा समस्‍त प्राणियों द्वारा पूजित एवं सबके ईश्‍वर रूद्रदेव के साथ भी सामने खड़ा होकर युद्ध कर सकता हूं । अत: इस समय इस क्षत्रियसमूह के साथ युद्ध करने में मुझे आज कोई आश्‍चर्य नहीं हो रहा है । शत्रुओं की यह सारी सेना मेरी सोलहवी कला के बराबर भी नही है । सूतनन्‍दन ! विश्‍वविजयी विष्‍णुस्‍वरूप मामा श्रीकृष्‍ण को तथा पिता अर्जुन को भी युद्ध में विपक्षी के रूप में सामने पाकर मुझे भय नही होगा ।।७।। अभिमन्‍यु ने सारथि के पूवोक्‍त कथन की अवहेलना करके उससे यही कहा-तुम शीध्र द्रोणाचार्य की सेना की ओर चलो। तब सारथि ने सुवर्णमय आभूषणों से भूषित तथा तीन वर्ष की अवस्‍था वाले घोड़ों को शीघ्र आगे बढ़ाया । उस समय उसका मन अधिक प्रसन्‍न नही था । राजन् ! सारथि सुमित्र द्वारा द्रोणाचार्य की सेना की ओर हांके हुए वे घोड़े महान् वेगशाली और पराक्रमी द्रोण की और दौड़े । अभिमन्‍यु को इस प्रकार आते देख द्रोणाचार्य आदि कौरववीर उनके सामने आकर खड़े हो गये और पाण्‍डव योद्धा उनका अनुसरण करने लगे । अभिमन्‍यु के ऊँचे एवं श्रेष्‍ठ ध्‍वज पर कर्णिकार का चिन्‍ह बना हुआ था । उसने सुवर्ण का कवच धारण कर रखा था । वह अर्जुनकुमार अपने पिता अर्जुन से भी श्रेष्‍ठ वीर था । जैसे सिंह का बच्‍चा हाथियों पर आक्रमण करता हैं, उसी प्रकार अभिमन्‍यु ने युद्ध की इच्‍छा से द्रोण आदि महारथियों पर धावा किया । अभिमन्‍यु बीस पग ही आगे बढे थे कि सामना करने के लिये उघत हुए द्रोणाचार्य आदि योद्धा उनपर प्रहार करने लगे । उस समय उस सैन्‍यसागर में अभिमन्‍यु के प्रवेश करने से दो घड़ी तक सेना की वही दशा रही, जैसी कि समुद्र में गगा की भॅवरों से युक्‍त जलराशि के मिलने से होती है । राजन् ! युद्ध में तत्‍पर हो एक-दूसरे पर घातक प्रहार करते हुए उन शूरवीरों में अत्‍यन्‍त दारूण एवं भयंकर संघर्ष होने लगा । वह अति भयंकर संग्राम चल ही रहा था कि द्रोणाचार्य के देखते-देखते अर्जुन कुमार अभिमन्‍यु व्‍यूह तोड़कर भीतर घुस गया । अभिमन्‍यु का पराक्रम अचिन्‍त्‍य था । उसने बिना किसी घबराहट के द्रोणाचार्य के अत्‍यन्‍त दुर्जय एवं दुर्धर्ष सैन्‍य समूह को भंग करके उसके भीतर प्रवेश किया ।। व्‍यूह के भीतर घुसकर शत्रुसमूहों का विनाश करते हुए महाबली अभिमन्‍यु को हाथों में अस्‍त्र–शस्‍त्र लिये गजारोही, अश्‍वरोही, रथी और पैदल योद्धाओं के भिन्‍न भिन्‍न दलों ने चारो ओर घेर लिया । नाना प्रकार के बाघों की ध्‍वनि, कोलाहल, ललकार, गर्जना, हुंकार, सिंहनाद, ठहरो की आवाज और घोर हलहला शब्‍द के साथ न जाओ, खड़े रहो, मेरे पास आओ, तुम्‍हारा शत्रु मैं तो यहां हूं इत्‍या‍दि बातें बारंबार कहते हुए वीर सैनिक हाथियों के चिग्‍घाड, घुँघुरूओं की रूनझुन, अट्टहास, हाथों की ताली के शब्‍द तथा पहियों की घर्घराहट से सारी वसुधा को गॅुजाते हुए अर्जुन कुमार पर टूट पड़े । राजन् ! महाबली वीर अभिमन्‍यु शीघ्रतापूर्वक युद्ध करने में कुशल, जल्‍दी-जल्‍दी अस्‍त्र चलाने वाला और शत्रुओं के मर्मस्‍थानों को जानने वाला था । वह अपनी ओर आते हुए शत्रु सैनिकों का मर्मभेदी बाणों द्वारा वध करने लगा । नाना प्रकार के चिन्‍हों से सुशोभित पैने बाणों की मार खाकर वे बहुसंख्‍यक कौरववीर विवश हो धरती पर गिर पड़े, मानो ढेर के ढेर फतिंगे जलती आम में पड़ गये हो । जैसे यज्ञ में वेदी के ऊपर कुश बिछाये जाते हैं, उसी प्रकार अभिमन्‍यु ने तुंरत ही शत्रुओं के शरीरों तथा विभिन्‍न अवयवों के द्वारा सारी रणभूमि को पाट दिया ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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