महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 30 श्लोक 1-16

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त्रिंश (30) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (पुत्रदर्शन पर्व)

महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: त्रिंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

कुन्ती का कर्ण के जन्म का गुप्त रहस्य बताना और व्यासजी का उन्हें सान्त्वना देना

कुन्ती बोली- भगवन् ! आप मेरे श्वशुर हैं, मेरे देवता के भी देवता हैं; अतः मेरे लिये देवताओं से भी बढ़कर हैं (आज मैं आपके सामने जीवन का एक गुप्त रहस्य प्रकट करती हूँ) । मेरी यह सच्ची बात सुनिये। एक समय की बात है, परम क्रोधी तपस्वी ब्राह्मण दुर्वासा मेरे पिता के यहाँ भिक्षा के लिये आये थे । मैंने उन्हें अपने द्वारा की गयी सेवाओं से संतुष्ट कर लिया। मैं शौचाचार का पालन करती, अपराध से बची रहती और शुद्ध हृदय से उनकी आराधना करती थी। क्रोध के बड़े-से-बड़े कारण उपस्थित होने पर भी मैंने कभी उनपर क्रोध नहीं किया। इस से वे वरदायक महामुनि मुझ पर बहुत प्रसन्न हुए । जब उनका कार्य पूरा हो गया तब वे बोले-‘तुम्हें मेरा दिया हुआ वरदान अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा’। उन की बात सुनकर मैंने शाप के भय से पुन: उन ब्रह्मर्षि से कहा –‘भगवन् ! ऐसा ही हो ।‘ तब वे ब्राह्मण देवता फिर मुझसे बोले – ‘भद्रे ! तुम धर्म की जननी होओगी । शुभानने ! तुम जिन देवताओं का आवाहन करोगी, वे तुम्हारे वश में हो जायँगे’। यों कहकर वे ब्रह्मर्षि अन्तर्धान हो गये । उस समय मैं वहाँ आश्चर्य से चकित हो गयी । किसी भी अवस्था में उनकी बात मुझे भूलती नहीं थी। एक दिन जब मैं अपने महल की छत पर खड़ी थी, उगते हुए सूर्य पर मेरी दृष्टि पड़ी । महर्षि दुर्वासा के वचनों का स्मरण करके मैं दिन-रात सूर्य देव को चाहने लगी। उस समय मैं बाल-स्वभाव से युक्त थी । सूर्य देव के आगमन से किस दोष की प्राप्ति होगी, इसे मैं नहीं समझ सकी । इधर मेरे आवाहन करते ही भगवान सूर्य पास आकर खड़े हो गये। वे अपने दो शरीर बनाकर एक से आकाश में रहकर सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित करने लगे और दूसरे से पृथ्वी पर मेरे पास आ गये । मैं उन्हें देखते ही काँपने लगी । वे बोले-‘देवि ! मुझ से कोई वर माँगो।’ तब मैंने सिर झुकाकर उन के चरणों में प्रणाम किया और कहा-‘कृप्या यहाँ से चले जाइये’। तब उन प्रचण्डरश्मि सूर्य ने मुझ से कहा-‘मेरा आवाहन व्यर्थ नहीं हो सकता ।तुम कोई-न-कोई वर अवश्य माँग लो अन्यथा मैं तुम को और जिस ने तुम्हें वर दिया है, उस ब्राह्मण को भी भस्म कर डालूँगा’। तब मैं उन निरपराध ब्राह्मण को शाप से बचाती हुई बोली-‘देव ! मुझे आप के समान पुत्र प्राप्त हो।’ इतना कहते ही सूर्य देव मुझेमोहित करके अपने तेज के द्वारा मेरे शरीर में प्रविष्ट हो गये । तत्पश्चात् बोले-‘तुम्हें एक तेजस्वी पुत्र प्राप्त होगा।’ ऐसा कहकर वे आकाश में चले गये। तब से मैंइस वृत्तान्त को पिताजी से छिपाये रखने के लिये महल के भीतर ही रहने लगी और जब गुप्त रूप से बालक उत्पन्न हुआ तो उसे मैंने पानी में बहा दिया । वही मेरा पुत्र कर्ण था। विप्रवर ! उस के जन्म के बाद पुनः उन्हीं भगवान सूर्य की कृपा से मैं कन्या भाव को प्राप्त हो गयी । जैसा कि उन महर्षि ने कहा था, वैसा ही हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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