महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 55 श्लोक 1-20

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें

पञ्चपञ्चाशत्तम (55) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: पञ्चपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

अश्वत्थारमा का घोर युद्ध, सात्याकि के सारथि का वध एवं युधिष्ठिर का अश्वत्थाामा को छोड़कर दूसरी ओर चले जाना संजय कहते है- राजन्। सात्य,कि तथा शूरवीर द्रौपदी-पुत्रों द्वारा सुरक्षित युधिष्ठिर को देखकर अश्वत्थाेमा बड़े हर्ष के साथ उनका सामना करने के लिये गया । वह बड़े-बड़े अस्त्रों का ज्ञाता था; इसलिये शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाले योद्धा के समान चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्णमय पंखों से युक्त भयंकर शरसमूहों की वर्षा करता और नाना प्रकार के मार्ग एवं शिक्षा का प्रदर्शन करता हुआ दिव्याकस्त्रों से अभिमन्त्रित बाणों द्वारा समरागड़ण में युधिष्ठिर को अवरुद्ध करके आकाश को उन बाणों से भरने लगा । द्रोणपुत्र के बाणों आच्छयन्न हो जाने के कारण वहां कुछ भी ज्ञात नहीं होता था। युद्ध का वह सारा विशाल मैदान बाणमय हो रहा था। भरतश्रेष्ठ स्वर्णजाल-विभूषित वह बाणों का जाल आकाश में फैलकर वहां तने हुए वितान (चंदोवे) के समान सुशोभित होता था । राजन्। उन प्रकाशमान बाणसमूहों से सारा आकाश मण्डहल ढक गया था। बाणों से रुंधे हुए आकाश में मेघों की छाया सी बन गयी थी । इस प्रकार आकाश के बाणमय हो जाने पर हमलोगों ने वहां यह आश्चर्य की बात देखी कि आकाशचारी कोई भी प्राणी उधर से उड़कर नीचे नहीं आ सकता था। उस समय प्रयत्नीशील सात्य कि, धर्मराज पाण्डुकपुत्र युधिष्ठिर यथा अन्यालन्यण सैनिक कोई पराक्रम न कर सके । महाराज। द्रोणपुत्र की वह फुर्ती देखकर वहां खड़े हुए सभी महारथी नरेश आश्चर्यचकित हो उठे और तपते हुए सुर्य के समान तेजस्वी अश्वत्थाडमा की ओर आंख उठाकर देख भी न सके ।
तदनन्तर जब पाण्डयसेना मारी जाने लगी, तब महारथी द्रौपदीपुत्र और सात्यखकि तथा धर्मराज युधिष्ठिर और पाच्चाल सैनिक संगठित हो घोर मृत्यु भय को छोड़कर द्रोणकुमार पर टूट पड़े । सात्य कि ने सत्ताईस बाणों से अश्वणत्‍थामा को घायल करके पुन: सात स्वर्णभूषित नाराचों द्वारा उसे बींध डाला । युधिष्ठिर ने तिहत्तर, प्रतिविन्य ने सात, श्रुतकर्मा तीन’ श्रुतकीर्ति ने सात, सुतसोमने नौ और शतानीकने उसे सात बाण मारे तथा दूसरे बहुत से शूरवीरों ने भी अश्वबत्थाुमा को चारों ओर से घायल कर दिया । राजन्। तब क्रोध में भरकर विषधर सर्प के समान फुफ कारते हुए अश्वमत्था माने सात्यिकि को पचीस बाणों से घायल करके बदला चुकाया । फिर श्रुतकीर्ति को नौ, सुतसोम को पांच, श्रुतकर्मा को आठ, प्रतिविन्य को तीन, शतानीक को नौ, धर्मपुत्र युधिष्ठिर को पांच तथा अन्य। शूरवीरों को दो दो बाणों से पीट दिया। इसके सिवा उसने पैने बाणों द्वारा श्रुतकीर्ति के धनुष को भी काट दिया। तब महारथी श्रुतकीर्ति ने दूसरा धनुष लेकर द्रोणकुमार को पहले तीन बाणों से घायल करके फिर दूसरे-दूसरे पैने बाणों द्वारा बींध डाला ।
मान्यलवर भरतभूषण महाराज। तत्प श्चात् द्रोणकुमार ने अपने बाणों वर्षा से युधिष्ठिर की उस सेना को सब ओर से ढक दिया । उसके बाद अमेय आत्मेबल से सम्पुन्न द्रोणकुमार ने धर्मराज के धनुष को काट डाला और हंसते-हंसते तीन बाणों द्वारा पुन: उन्हेंन घायल कर दिया ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख