महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 53 श्लोक 1-23
त्रिपञ्चाशत्तम (53) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)
शंकर और ब्रह्माका संवाद, मृत्यु की उत्पति तथा उसे समस्त प्रजा के संहार का कार्य सौंपा जाना
स्थाणु (रूद्रदेव) ने कहा – प्रभो ! आपने प्रजा की सृष्टि के लिये स्वयं ही यत्न किया है । आपने ही नाना प्रकार के प्राणि समुदाय की सृष्टि एवं वृद्धि की है । आपकी वे ही सारी प्रजाऍ पुन: आपके ही क्रोध से यहां दग्ध हो रही हैं । इससे उनके प्रति मेरे हृदय में करुणा भर आयी है । अत: भगवन् ! प्रभो ! आप उन प्रजाओं पर कृतादृष्टि करके प्रसन्न होइये । ब्रह्माजी बोले – रूद्र ! मेरी इच्छा यह नही है कि इस प्रकार इस जगत् का संहार हो । वसुधा के हित के लिये ही मेरे मन में क्रोध का आवेश हुआ था । महादेव ! इस पृथ्वीदेवी ने भार से पीडित होकर मुझे जगत् के संहार के लिये प्रेरित किया था । यह सती-साध्वी देवी महान् भार से दबी हुई थी । मैने अनेक प्रकार से इस अनन्त जगत् के संहार के उपाय पर विचार किया, पंरतु मुझे कोई उपाय सूझ न पड़ा । इसलिये मुझमें क्रोध का आवेश हो गया । रूद्र ने कहा – वसुधा के स्वामी पितामह ! आप रोष न कीजिये । जगत्का संहार बंद करनेके लिये प्रसन्न होइये । इन स्थावर जग में प्राणियों का विनाश न कीजिये । भगवन् ! आपकी कृपासे यह जगत् भूत, भविष्य और वर्तमान – तीन रूपों में विभक्त हो जाय । प्रभो ! आपके क्रोध से प्रज्वलित होकर क्रोधपूर्वक जिस अग्नि की सृष्टि की है, वह पर्वत-शिखरों, वृक्षों और सरिताओं को दग्ध कर रही है । यह समस्त छोटे-छोटे जलाशयों, सब प्रकार के तृण और लताओं तथा स्थावर और जगम जगत् को सम्पूर्णरूप से नष्ट कर रही है । इस प्रकार यह सारा चराचर जगत् जलकर भस्म हो गया । भगवन् ! इाप प्रसन्न होइये । आपके मन मे रोष न हो, यही मेरे लिये आपकी ओर से वर प्राप्त हो । देव ! आपके रचे हुए समस्त प्राणी किसी न किसी रूप में नष्ट होते चले जा रहे है; अत: आपका यह तेजस्वरूप क्रोध जगत् के संहार से निवृत हो आपमें विलीन हो जाय । प्रभो ! आप प्रजावर्गके अत्यन्त हित की इच्छा से इनकी ओर कृपापूर्ण दृष्टि से देखिये, जिससे ये समस्त प्राणी नष्ट होने से बच जाऍ, वैसा कीजिये । संतानों का नाश हो जाने से इस जगत् के सम्पूर्ण प्राणियों का अभाव न हो जाय । आदि देव ! आपने सम्पूर्ण लोकों में मुझे लोकस्त्रष्टा के पद पर नियुक्त किया है । जगन्नाथ ! यह चराचर जगत् नष्ट न हो, इसलिये सदा कृपा करने को उघत रहनेवाले प्रभु के सामने मैं ऐसी प्रार्थना कर रहा हूं । नारदजी कहते है – राजन् ! प्रजाके हित के लिये महादेव का यह वचन सुनकर भगवान ब्रह्माने पुन: अपनी अन्तरात्मा में ही उस तेज (क्रोध) को धारण कर लिया । तब विश्ववन्दित भगवान ब्रह्माने उस अग्नि का उपसंहार करके मनुष्यों के लिय प्रवृत्ति (कर्म) और निवृत्ति (ज्ञान) मार्गो का उपदेश दिया । उस क्राधाग्नि का उपसंहार करते समय महात्मा ब्रह्माजी की सम्पूर्ण इन्द्रियों से एक नारी प्रकट हुई, जो काले और लाल रंग की थी । उसकी जिह्रा, मुख और नेत्र पीले और लाल रंग के थे । राजेन्द्र ! वह तपाये हुए सोने के कुण्डलों से सुशोभित थी और उसके सभी आभूषण तप्त सुवर्ण के बने हुए थे । वह उनकी इन्द्रियों से निकलकर दक्षिण दिशा में खड़ी हुई और उन दोनों देवताओं एवं जगदीश्वरों की ओर देखकर मन्द-मन्द मुसकराने लगी । महीपाल ! उस समय सम्पूर्ण लोकों के आदि और अन्त के स्वामी ब्रह्माजी ने उस नारी को अपनेपास बुलाकर उसे बारंबार सान्त्वना देते हुए मधुर वाणी मृत्यो (हे मृत्यु) कह करके पुकारा और कहा –तू इन समस्त प्रजाओं का संहार कर । देवी ! तू संहारबुद्धि से मेरे रोष द्वारा प्रकट हुई है, इसलिये मूर्ख और पण्डित सभी प्रजाओं का संहार करती रह, मेरी आज्ञासे तुझे यह कार्य करना होगा । इससे तू कल्याण प्राप्त करेगी । ब्रह्माजी के ऐसा कहने पर मृत्यु नामवाली कमल लोचना अबला अत्यन्त चिन्ता मग्न हो गयी और फूट-फूटकर रोने लगी । पितामह ब्रह्माने उसके उन ऑसुओं को समस्त प्राणियों के हित के लिये अपने दोनों हाथों मे ले लिया और उस नारी को भी अनुनय से प्रसन्न किया ।
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