महाभारत सभा पर्व अध्याय 1 श्लोक 1-14
प्रथम (1) अध्याय: सभा पर्व (सभाक्रिया पर्व)
भगवान् श्रीकृष्ण की आज्ञा के अनुसार मयासुर द्वारा सभाभवन बनाने की तैयारी
अन्र्तयामी नारायाणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, उनके नित्यसखा नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करने वाली) भगवती सरस्वती और (उन लीलाओं का संकलन करने वाले) महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके जय (महाभारत) का पाठ करना चाहिये। वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय खाण्डवदाह के अनन्तर मयासुर ने भगवान् श्रीकृष्ण के पास बैठे हुए अर्जुन की बारंबार प्रशंसा करके हाथ जोड़कर मधुर वाणी में उनसे कहा। मयासुर बोला - कुन्तीनन्दन ! आपने अत्यन्त क्रोध में भरे हुए इन भगवान् श्रीकृष्ण से तथा जला डालने की इच्छा वाले अग्निदेव से भी मेरी रक्षा की है। अतः बताइये, मैं (इस उपकार के बदले) आपकी क्या सेवा करूँ ? अर्जुन ने कहा - असुरराज ! तुमने इस प्रकार कृतज्ञता प्रकट करके मेरे उपकार का मानो सारा बदला चुका दिया। तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम जाओ। मुझ पर प्रेम बनाये रखना। हम भी तुम्हारे प्रति सदा स्नेह का भाव रखेंगे। मयासुर बोला - प्रभो ! पुरुषोत्तम ! आपने जो बात कही है, वह आप जैसे महापुरुष के अनुरूप ही है। परंतु भारत ! मैं बडे़ प्रेम से आपके लिये कुछ करना चाहता हूँ। पाण्डुनन्दन ! मैं दानवों का विश्वकर्मा एवं शिल्पविद्या का महान् पण्डित हूँ। अतः मैं आपके लिये किसी वस्तु का निर्माण करना चाहता हूँ।
कुन्तीनन्दन ! पूर्वकाल में मैने दानवों के बहुत से महल बनायें है। इसके सिवा देखने में रमणीय, सुख और भोग साधनों से सम्पन्न अनेक प्रकार के रमणीय उद्यानों, भाँति भाँति के सरोवरों, विचित्र अस्त्र-शस्त्रों, इच्छानुसार चलने वाले रथों, अट्टालिकाओं, चहारदिवारियों और बडे़-बडे़ फाटकों सहित विशाल नगरों, हजारों अद्भुत एवं श्रेष्ठ वाहनों तथा बहुत सी मनोहर एवं अत्यन्त सुखदायक सुरंगों का मैने निर्माण किया है। अतः अर्जुन ! मैं आपके लिये भी कुछ बनाना चाहता हूँ। अर्जुन बोले - मयासुर ! तुम मेरे द्वारा अपने को प्राणसंकट से मुक्त हुआ मानते हो और इसीलिये कुछ करना चाहते हो। ऐसी दशा में मैं तुमसे कोई काम नहीं करा सकूँगा। दानव ! साथ ही मैं यह भी नहीं चाहता कि तुम्हारा यह संकल्प व्यर्थ हो। इसलिये तुम भगवान् श्रीकृष्ण का कोई कार्य कर दो, इससे मेरे प्रति तुम्हारा कर्तव्य पूर्ण हो जायेगा।
भरतश्रेष्ठ ! तब मयासुर ने भगवान् श्रीकृष्ण से काम बताने का अनुरोध किया। उसके प्रेरणा करने पर भगवान् श्रीकृष्ण ने अनुमानतः दो घड़ी तक विचार किया कि ‘इसे कौन सा काम बताया जाय ?’ तदनन्तर म नही मन कुछ सोचकर प्रजापालक लोकनाथ भगवान् श्रीकृष्ण ने उससे कहा - ‘शिल्पियों में श्रेष्ठ दैत्यराज मय ! यदि तुम मेर कोई प्रिय कार्य करना चाहते हो तो तुम धर्मराज युधिष्ठिर के लिये जैसा ठीक समझो, वैसा एक सभाभवन बना दो। ‘वह सभा ऐसी बनाओ, जिसके बन जाने पर सम्पूर्ण मनुष्यलोक के मानव देखकर विस्मित हो जायँ और कोई उसकी नकल न कर सकें। ‘मयासुर ! तुम ऐसे सभाभवन का निर्माण करो, जिसमें हम तुम्हारे द्वारा अंकित देवता, असुर और मनुष्यों की शिल्पनिपुणता का दर्शन कर सकें’। वैशम्पायन जी कहते हैं - राजन् ! भगवान् श्रीकृष्ण की उस आज्ञा को शिरोधार्य करके मयासुर बहुत प्रसन्न हुआ और उसने उस समय पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के लिये विमान जैसी सभा बनाने का निश्चय किया।