महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 20 श्लोक 1-19

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विंश (20) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: विंश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

अश्वत्थामा द्वारा पाण्ड्य नरेश

धृतराष्ट्र ने पूछा-संजय ! तुमने पाण्ड्य को पहले ही लोकविख्यात वीर बतलाया था;परंतु संग्राम में उनके किये हुए वीरोचित कर्म का वर्णन नहीं किया ।आज उन प्रमुख वीर के पराक्र,शिक्षा,प्रभाव,बल,प्रमाण और दर्प का विस्तारपूर्वक वर्णन करो।

संजय ने कहा-राजन् ! भीष्म,द्रोण,कृपाचार्य,अश्वत्थामा,कर्ण,अर्जुन तथा श्रीकृष्ण आदि जिन वीरों को आप पूर्ण विद्वान,धनुर्वेद में श्रेष्ठ तथा महारथी मानते हैं,इन सब महारथियों को जो अपने पराक्रम के समक्ष तुच्छ समझता था,जो किसी भी नरेश को अपने समान नहीं नहीं मानता था,जो द्रोण और भीष्म के साथ अपनी तुलना नहीं सह सकता था और जिसने श्रीकृष्ण तथा अर्जुन से भी अपने में तनिक भी न्यूनता मानने की इच्छा नहीं की,उसी सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ नृपशिरोमणि पाण्ड्य ने अपमानित हुए यमराज के समान कुपित हो कर्ण की सेना का वध आरम्भ किया। कौरव सेना में रथ,घोड़े और हाथियों की संख्या बढ़ी-चढ़ी थी,श्रेष्ठ पैदल सैनिकों से भी वह सेना भरी हुई थी,तथापि पाण्ड्यनरेश के द्वारा बलपूर्वक आहत होकर वह कुम्हार के चाक की भाँति चक्कर काटने लगी। जैसे वायु मेघों को उड़ा देती है,उसी प्रकार पाण्ड्य नरेश ने अच्छी तरह चलाये हुए बाणों क्षरा समस्त सैनिकों को घोड़े,सारथि,ध्वज और रथों से हीन कर दिया । उनके आयुधों और हाथियों को भी मार गिराया। जैसे पर्वतों का हनन करने वाले इन्द्र ने वज्र द्वारा पर्वतों परआघात किया था,उसी प्रकार पाण्ड्य नरेश ने पाद रक्षकों सहित हाथियों और हाथी सवारों को ध्वज,पताका तथा आयुधों से वंचित करके मार डाला। शक्ति,प्राप्त और तरकसों सहित घुड़सवारों तथा घोड़ों को भी यमलोक पहुँचा दिया। पुलिन्द, खस, बाहीक, निषाद, आन्ध्र कुनतल,दक्षिणात्य तथा भोजप्रदेशीय रणकर्कश शूर-वीरों को अपने बाणों द्वारा अस्त्र-शस्त्र तथा कवचों से हीन करके उनके प्राण हर लिए। राजा पाण्ड्य को समरांगण में बिना किसी घबराहट के अपने बाणों द्वारा कौरवों की चतुरंगिणी सेना का विनाश करते देख अश्वत्थामा ने निर्भय होकर उनका सामना किया। साथ ही उन निर्भय नरेश को मधुर वाणी में सम्बोधित करके योद्धाओं में श्रेष्ठ अश्वत्थामा ने मुसकराकर युद्ध के लिए उनका आह्नान करते हुए निर्भीक के समान कहा-। ‘राजन् ! कमलनयन ! तुम्हारा कुल और शास्त्रज्ञान सर्वश्रेष्ठ है । तुम्हारा सुगठित शरीर वज्र के समान कान्तिमान् है,तुमहारे बल और पुरुषार्थ भी प्रसिद्ध हैं। ‘तुम्हारे धनुष की एक ही प्रत्यंचा एक ही समय तुम्हारी मुट्ठी में सटी हुई तथा गोलाकार फैली हुई दिखाई देती है । जब तुम अपनी दोनों बड़ी-बड़ी भुजाओं से विशाल धनुष को खींचने और उसकी टंकार करने लगते हो,उस समय महान् मेश के समान तुम्हारी बड़ी शोभा होती है। ‘जब तुम अपने शत्रुओं पर बड़े वेग से बाण-वर्षा करने लगते हो,उस समय मैं अपने सिवा दूसरे किसी वीर को ऐसा नहीं देखता,जो समरांगण में तुम्हारा सामना कर सके। तुम अकेले ही बहुत-से रथ,हाथी,पैदल और घोड़ों को मथ डालते हो । ठीक उसी तरह,जैसे वन में भयुकर बलशाली सिंह बिना किसी भय के मृग-समूहों का संहार कर डालता है। ‘राजन् ! तुम अपने रथ के गम्भीर घोष से आकाश और पृथ्वी को प्रतिध्वनित करते हुए शरत्काल में गर्जना करने वाले सस्यनाशक मेघ के समान जान पड़ते हो। ‘अब तुम अपने तरकस से विषधर सर्पों के समान तीखे बाण लेकर जैसे महादेव जी के साथ अन्धकासुर ने संग्राम किया था,उसी प्रकार केवल मेरे साथ युद्ध करो ‘।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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