महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 46 श्लोक 1-17

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षट्चत्वारिंश (46) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: षट्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासी के धर्म का वर्णन

ब्रह्माजी ने कहा- महर्षिगण! इस प्रकार इस पूर्वोक्त मार्ग के अनुसार गृहस्थ को यथावत् आचरण करना चाहिये एवं यथाशक्ति अध्ययन करते हुए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले पुरुष को चाहिये कि वह अपने धर्म में तत्पर रहे, विद्वान् बने, सम्पूर्ण इन्द्रियों को अपने अधीन रखे, मुनि व्रत का पालन करे, गुरु का प्रिय और हित करने में लगा रहे, सत्य बोले तथा धर्म परायण एवं पवित्र रहे। गुरु की आज्ञा लेकर भोजन करे। भोजन के समय अन्न की निन्दा न करे। भिक्षा के अन्न को हविष्य मानकर ग्रहण करे। एक स्थान पर रहे। एक आसन से बैठे और नियत समय में भ्रमण करे। पवित्र और एकाग्रचित होकर दोनों समय अग्नि में हवन करे। सदा बेल या पलाश का दण्ड लिये रहे। रेशमी अथवा सूती वस्त्र या मृगचर्म धारण करे। अथवा ब्राह्मण के लिये सारा वस्त्र गेरुए रंग का होना चाहिये। ब्रह्मचारी मूँज की मेखला पहने, जटा धारण करे, प्रतिदिन स्नान करे, यज्ञोपवतीत पहने, वेद के स्वाध्याय में लगा रहे तथा लोभहीन होकर नियमपूर्वक व्रत का पालन करे। जो ब्रह्मचारी सदा नियम परायण होकर श्रद्धा के साथ शुद्ध जल से नित्य देवताओं का तर्पण करता है, उसक सर्वत्र प्रशंसा होती है। इसी प्रकार आगे बतलाये जाने वाले उत्तम गुणों से युकत जितेन्द्रिय वानप्रस्थी पुरुष भी उत्तम लोकों पर विजय पाता है। वह उत्तम स्थान को पाकर फिर इस संसार में जन्म धारण नहीं करता। वानप्रस्थ मुनि को सब प्रकार के संस्कारों के द्वारा शुद्ध होकर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए घर की ममता त्यागकर गाँव से बाहर निकलकर वन में निवास करना चाहिये। वह मृगचर्म अथवा वल्कल वस्त्र पहने। प्रात: और सायंकाल के समय स्नान करे। सदा वन में ही रहे। गाँव में फिर कभी प्रवेश न करे। अतिथि को आश्रम दे और समय पर उनका सत्कार करे। जंगली फल, मूल, पत्ता अथवा सावाँ खाकर जीवन निर्वाह करे। बहते हुए जल, वायु आदि सब वन की वस्तुओं का ही सेवन करे। अपने व्रत के अनुसार सदा सावधान रहकर क्रमश: उपर्युकत वस्तुओं का आहार करे। यदि कोई अतिथि आ जाय तो फल मूल की भिक्षा देकर उसका सत्कार करे। कभी आलस्य न करे। जो कुछ भोजन अपने पास उपस्थित हो, उसीमें से अतिथि को भिक्षा दे। नित्य प्रति पहले देवता और अतिथियों को भोजन दे, उसके बाद मौन होकर स्वयं अन्न ग्रहण करे। मन में किसी के साथ स्पर्धा न रखे, हल का भोजन करे, देवताओं का सहारा ले। इन्द्रियों का संयम करे, सबके साथ मित्रता का बर्ताव करे, क्षमाशील बने और दाढ़ी मूँछ तथा सिर के बालों को धारण किये रहे। समय पर अग्निहोत्र और वेदों का स्वाध्याय करे तथा सत्य धर्म का पालन करे। शरीर को सदा पवित्र रखे। धर्म पालन में कुशलता प्राप्त करे। सदा वन में रहकर चित्त को एकाग्र किये रहे। इस प्रकार उत्तम धर्मों को पालन करने वाला जितेन्द्रिय वानप्रस्थी स्वर्ग पर विजय पाता है। ब्रह्मचारी, गृहस्थ अथवा वानप्रस्थ कोई भी क्यों न हो, जो मोक्ष पाना चाहता हो, उसे उत्तम वृत्ति का आश्रय लेना चाहिये।





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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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