महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 58 श्लोक 1-15

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अष्‍टपंचासत्‍तम (58) अध्याय: द्रोण पर्व ( अभिमन्‍युपर्व )

महाभारत: द्रोण पर्व:अष्‍टपंचासत्‍तम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


नारदजी कहते हैं – सृंजय ! जिन्‍होंने इस सम्‍पूर्ण पृथ्‍वी को चमडे की भांति लपेट लिया था, (सर्वथा अपने अधीन कर लिया था) वे उशीनरपुत्र राजा शिबि भी मरे थे, यह हमने सुना है । राजा शिबि ने पर्वत, द्वीप समुद्र और वनों सहित इस पृथ्‍वी को अपने रथ की घरघराहट से प्रतिध्‍वनित करते हुए प्रधान-प्रधान शत्रुओं को मारकर सदा ही अपने विपक्षियों पर विजय प्राप्‍त की थी । उन्‍होंने प्रचुर दक्षिणाओं से युक्‍त नाना प्रकार के यज्ञों का अनुष्‍ठान किया था । वे पराक्रमी और बुद्धिमान्‍ नरेश पर्याप्‍त धन पाकर युद्ध में सम्‍पूर्ण मूर्धाभिषिक्‍त राजाओं की दृष्टि में सम्‍माननीय वीर हो गये थे। उन्‍होंने इस पृथ्‍वी को जीतकर अनेक अश्‍वमेघ-यज्ञ किये थे ।

उनके वे यज्ञ प्रचुर फल देने वाले थे और सदा निर्बाध रूप से चलते रहते थे । उन्‍होंने सहस्‍त्रकोटि स्‍वर्ण मुद्राओं का दान किया था । राजा शिबि ने हाथी, घोडे, मृग, गौ, भेड और बकरी आदि पशुओं तथा धान्‍यों सहित नाना प्रकार के पवित्र भूखण्‍ड ब्राह्मणों के अधीन कर दिये थे । बरसते हुए मेघ से जितनी धाराएं गिरती हैं, आकाश में जितने नक्षत्र दिखायी देते हैं, गंगा के किनारे जितने बालू के कण हैं, सुमेरु पर्वत में जितने स्‍थूल प्रस्‍तरखण्‍ड हैं तथा महासागर में जितने रत्‍न और प्राणी निवास करते हैं, उतनी गौएं उशीनरपुत्र शिबि ने यज्ञ में ब्राह्मणों को दी थीं । प्रजापति ने भी अपनी सृष्टि में भूत, भविष्‍य और वर्तमान काल के किसी भी दूसर नरश्रेष्‍ठ राजा को ऐसा नहीं पाया, जो शिबि के कार्यभार को संभाल सकता हो । उन्‍होंने नाना प्रकार के बहुत से यज्ञ किये, जिनमें प्रार्थियों की सम्‍पूर्ण कामनाएं पूर्ण की जाती थीं । उन यज्ञों में यज्ञस्‍तम्‍भ, आसन, गृह, परकोटे और दरवाजे सुवर्ण के बने हुए थे । उन यज्ञों में खाने-पीने की वस्‍तुएं पवित्र और स्‍वादिष्‍ट होती थीं । वहां दूध-दही के बडे-बडे सरोवर बने हुए थे । वहां हजारों और लाखों ब्राह्मण भांति-भांति के खाद्य पदार्थ पाकर प्रसन्‍नता प्रकट करने वाली बातें कहते थे । उनकी यज्ञशालाओं में पीने योग्‍य पदार्थों की नदियों बहती थीं और शुद्ध अन्‍न के पर्वतों के समान ढेर लगे रहते थे । वहां सबके लिये यह घोषणा की जाती थी कि सज्‍जनो ! स्‍नान करो और जिसकी जैसी रुचि हो उसके अनुसार अन्‍न पान लेकर खूब खाओ-पीओ’ । भगवान शिव ने राजा शिबि के पुण्‍यकर्म से प्रसन्‍न होकर उन्‍हें यह वर दिया था कि राजन! सदा दान करते रहने पर भी तुम्‍हारा धन क्षीण नहीं होगा, तुम्‍हारी श्रद्धा, कीर्ति और पुण्‍यकर्म भी अक्षय होंगे । तुम्‍हारे कहने के अनुसार ही सब प्राणी तुमसे प्रेम करेंगे और अन्‍त में तुम्‍हें उत्‍तम स्‍वर्ग लोक की प्राप्ति होगी । इन अभीष्‍ट वरों को पाकर राजा शिबि समय आने पर स्‍वर्ग लोक में गये। सृंजय ! वे तुम्‍हारी अपेक्षा पूर्वोक्‍त चारों बातों में बहुत बढे-चढे थे । तुम्‍हारे पुत्र से भी पुण्‍यात्‍मा थे । श्वित्‍यनन्‍दन ! जब वे शिबि भी मर गये, तब तुम्‍हें यज्ञ और दान से रहित अपने पुत्र के लिये इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिये । नारदजी ने राजा सृंजय से यही बात कही ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत षोडराजकीयोपाख्‍यान विषयक अट्ठावन वां अध्‍याय पूरा हुआ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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