महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 68 श्लोक 1-16

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अष्टषष्टितम (68) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: अष्टषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण का प्रसूतिकागृह में प्रवेश, उत्तरा का विलाप और अपने पुत्र को जीवित करने के लिये प्रार्थना

वैशम्पायनजी कहते हैं- राजेन्द्र! सुभद्रा के ऐसा कहने पर केशिहन्ता केशव दु:ख से व्याकुल हो उसे प्रसन्न करते हुए उच्च स्वर में बोले- ‘बहिन! ऐसा ही होगा’। जैसे धूप से तपे हुए मनुष्य को जल से नहला देने पर बड़ी शान्ति मिल जाती है, उसी प्रकार पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण ने इस अमृतमय वचन के द्वारा सुभद्रा तथा अन्त:पुर की दूसरी स्त्रियों को महान् आहृाद प्रदान किया। पुरुषसिंह! तदन्तर भगवान श्रीकृष्ण तुरंत ही तुम्हारे पिता के जन्मस्थान-सूतिकागार में गये; जो सफेद फूलों की मालाओं से विधिपूर्वक सजाया गया था। महाबाहो! उसके चारों ओर जल से भरे हुए कलश रखे गये थे। घी से तर किये हुए तेन्दुक नामक काष्ठ के कई टुकड़े जल रहे थे तथा यत्र-तत्र सरसों बिखेरी गयी थी। धैर्यशाली राजन्! उस घर के चारों ओर चमकाते हुए तेज हथियार रखे गये थे और सब ओर आग प्रज्वलित की गयी थी। सेवा के लिये उपस्थित हुई बूढ़ी स्त्रियों ने उस स्थान को घेर रखा था तथा अपने-अपने कार्य में कुशल चतुर चिकित्सक भी चारों ओर मौजूद थे। तेजस्वी श्रीकृष्ण ने देखा कि व्यवस्थाकुशल मनुष्यों द्वारा वहाँ सब ओर राक्षसों का निवारण करने वाली नाना प्रकार की वस्तुएँ विधिपूर्वक रखी गयी थीं। तुम्हारे पिता के जन्मस्थान को इस प्रकार आवश्यक वस्तुओं से सुसज्जित देख भगवान श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए और ‘बहुत अच्छा’ कहकर उस प्रबंध की प्रशंसा करने लगे। जब भगवान श्रीकृष्ण प्रसन्नमुख होकर उसकी सराहना कर रहे थे, उसी समय द्रौपदी बड़ी तेज़ीके साथ उत्तरा के पास गयी और बोली- ‘कल्याणि! यह देखो, तुम्हारे श्वसुरतुल्य, अचिन्त्यस्वरूप, किसी से पराजित न होने वाले, पुरातन ऋषि भगवान मधुसूदन तुम्हारे पास आ रहे हैं। यह सुनकर उत्तरा ने अपने आँसुओं को रोककर रोना बंद कर दिया और अपने सारे शरीर को वस्त्रों से ढक लिया। श्रीकृष्ण के प्रति उसकी भगवद्बुद्धि थी; इसीलिये उन्हें आते देख वह तपस्विनी बाला व्यथित हृदय से करुणविलाप करती हुई गद्गद-कण्ठ से इस प्रकार बोली- ‘कमलनयन! जर्नादन! देखिये, आज मैं और मेरे पति दोनों ही संतानहीन हो गये। आर्यपुत्र तो युद्ध में वीर गति को प्राप्त हुए हैं; परंतु मैं पुत्रशोक से मारी गयी। इस प्रकार हम दोनों समान रूप से ही काल के ग्रास बन गये। ‘वृष्णिनन्दन! वीर मधुसूदन! मैं आपके चरणों में मस्तक रखकर आपका कृपाप्रसाद प्राप्त करना चाहती हूँ। द्रोणपुत्र अश्वत्थामा के अस्त्र से दग्ध हुए मेरे इस पुत्र को जीवित कर दीजिये। ‘प्रभो! पुण्डरीकाक्ष! यदि धर्मराज अथवा आर्य भीमसेन या आपने ही ऐसा कह दिया होता कि यह सींक इस बालक को न मारकर इसकी अनजान माता को ही मार डाले, तब केवल मैं ही नष्ट हुई होती। उस दशा में यह अनर्थ नहीं होता। ‘हाय! इस गर्भ के बालक को ब्रह्मास्त्र से मार डालने का क्रूरतापूर्ण कर्म करके दुर्बुद्धि द्रोणपुत्र अश्वत्थामा कौनसा फल पा रहा है।





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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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