महाभारत आदि पर्व अध्याय 48 श्लोक 1-22
अष्टचत्वारिंश (48) अध्याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
उग्रश्रवाजी कहते हैं—तपोधन शौनक ! पति के निकलते ही नागकन्या जरत्कारू ने अपने भाई वासुकि के पास जाकर उनके चले जाने का सब हाल ज्यों-का-त्यों सुना दिया। यह अत्यन्त अप्रिय समाचार सुनकर सर्पों में श्रेष्ठ वासुकि स्वयं भी बहुत दुखी हो गये और दुःख में पड़ी हुई अपनी बहिन से बोले। वासुकि ने कहा—भद्रे ! सर्पो का जो महान् कार्य है और मुनि के साथ तुम्हारा विवाह होने में जो उद्देश्य रहा है, उसे तो तुम जानती ही हो। यदि उसके द्वारा तुम्हारे गर्भ से कोई पुत्र उत्पन्न हो जाता तो उससे सर्पों का बहुत बड़ा हित होता। वह शक्तिशाली मुनिकुमार ही हम लोगों को जनमेजय के सर्पयज्ञ में जलने से बचायेगा; यह बात पहले देवताओं के साथ भगवान ब्रह्माजी ने कही थी। सुभगे ! क्या उन मुनिश्रेष्ठ से तुम्हें गर्भ रह गया है? तुम्हारे साथ उन मनीषी महात्मा का विवाहकर्म निष्फल हो, यह मैं नहीं चाहता। मैं तुम्हारा भाई हूँ। ऐसे कार्य (पुत्रोत्पत्ति) के विषय में तुमसे कुछ पूछना मेरे लिये उचित नहीं है, परंतु कार्य के गौरव का विचार करके मैंने तुम्हें इस विषय में सब बातें बताने के लिये प्रेरित किया है। तुम्हारे महातपस्वी पति को जाने से रोकना किसी के लिये भी अत्यन्त कठिन है, यह जानकर मैं उन्हें लौटा लाने के लिये उनके पीछे नहीं जा रहा हूँ लौटने का आग्रह करूँ तो कदाचित वे मुझे शाप भी दे सकते हैं। अतः भद्रे ! तुम अपने पति की सारी चेष्टा बताओ और मेरे हृदय में दीर्घकाल से जो भयंकर काँटा चुभा हुआ है, उसे निकाल दो। भाई के इस प्रकार पूछने पर तब जरत्कारू अपने संतान भ्राता नागराज वासुकि को धीरज बँधाती हुई इस प्रकार बोली। जरत्कारू ने कहा—भाई ! मैने संतान के लिये उन महातपस्वी महात्मा से पूछा था। मेरे गर्भ के विषय में ‘अस्ति (तुम्हारे गर्भ में पुत्र है)’ इतना ही कहकर वे चले गये। राजन ! उन्होंने पहले कभी विनोद में भी झूठी बात कही हो, यह मुझे स्मरण नहीं है। फिर इस संकट के समय तो ये झूठ बोलेंगे ही क्यों? भैया ! मेरे पति तपस्या के धनी हैं। उन्होंने जाते समय मुझसे यह कहा—‘नागकन्ये ! तुम अपनी कार्य सिद्धि के सम्बन्ध में कोई चिन्ता न करना। तुम्हारे गर्भ से अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी पुत्र उत्पन्न होगा।’ इतना कहकर वे तपोवन में चले गये। अतः भैया ! तुम्हारे मन में जो महान् दुःख है, वह दूर हो जाना चाहिये। उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनक ! यह सुनकर नागराज वासुकि बड़ी प्रसन्नता से बोले—‘एवमस्तु (ऐसा ही हो)।’ इस प्रकार उन्होंने बहिन की बात को विश्वासपूर्वक ग्रहण किया। सर्पों में श्रेष्ठ वासुकि अपनी सहोदरा बहिन को सान्त्वना, सम्मान तथा धन देकर एवं सुन्दर रूप से उसका स्वागत-सत्कार करके उसकी समाराधना करने लगे। द्विजश्रेष्ठ ! जैसे शुक्लपक्ष में आकाश में उदित होने वाला चन्द्रमा प्रतिदिन बढ़ता है, उसी प्रकार जरत्कारू वह महातेजस्वी और परम कान्तिमान गर्भ बढ़ने लगा। ब्रह्मन ! तदनन्तर समय आने पर वासुकि की बहिन ने एक दिव्य कुमार को जन्म दिया, जो देवताओं के बालक-सा तेजस्वी जान पड़ता था। वह पिता और माता दोनों पक्षों के भय को नष्ट करने वाला था। वह वहीं नागराज के भवन में बढ़ने लगा। बड़े होने पर उसने भृगुकुलोत्पन्न च्यवन मुनि से छहों अंगो सहित वेदों का अध्ययन किया। वह बचपन से ही ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाला, बुद्धिमान तथा सत्वगुण सम्पन्न हुआ। लोक में आस्तीक नाम से उसकी ख्याति हुई। वह बालक अभी गर्भ में ही था, तभी उसके पिता ‘अस्ति’ कहकर वन में चले गये थे। इसलिये संसार में उसका आस्तीक नाम प्रसिद्ध हुआ। अमित बुद्धिमान आस्तीक बाल्यावस्था में ही वहाँ रहकर ब्रह्मचर्य का पालन एवं धर्म का आचरण करने लगा। नागराज के भवन में उसका भली- भाँति यत्नपूर्वक लालन-पालन किया गया। सुवर्ण के समान कान्तिमान शूलपाणि देवेश्वर भगवान शिव की भाँति वह बालक दिनों- दिन बढ़ता हुआ समस्त नागों का आनन्द बढ़ाने लगा।
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