महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 112 श्लोक 1-18
द्वादशाधिकशततम (112) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
सात्यकि अर्जुन के पास जाने की तैयारी और सम्मानपूर्वक विदा होकर उनका प्रस्थान तथा साथ आते हुए भीम को युधिष्ठिर की रक्षा के लिये लौटा देना
संजय कहते हैं-राजन् ! धर्मराज को वह कथन सुनकर शिनिप्रवर सात्यकि के मन में राजा को छोड़कर जाने से अर्जुन के अप्रसन्न होने की आशा का उत्पन्न हुई । विशेषत: उन्हें अपने लिये लोकापवाद का भय दिखायी देने लगा। वे सोचने लगे-मुझे अर्जुन की ओर आते देख सब लोग यही कहेंगे कि वह डरकर भाग आया है। युद्ध में दुर्जय वीर पुरुषराज सात्यकि ने इस प्रकार भांति-भांति से विचार करके धर्मराज से यह बात कही-। ‘प्रजानाथ ! यदि ाअप अपनी रक्षा की व्यवस्थाकी हुई मानते हैं तो आपका कल्याण हो। मैं अर्जुन के पास जाउंगा और आपकी आज्ञा का पालन करुंगा। ‘राजन् ! मैं आपसे सच कहता हूं कि तीनों लोकों में कोई ऐसा पुरुष नहीं हैं, जो मुझे पाण्डुनन्दन अर्जुन से अधिक प्रिय हो। ‘मानद ! मैं आपके आदेश और संदेश से अर्जुन के पथ का अनुसरण करुंगा। आपकेलिये कोई ऐसा कार्य नहीं हैं, जिसे मैं किसी प्रकार न कर सकूं। ‘नरश्रेष्ठ ! मेरे गुरु अर्जुन का वचन मेरे लिये जैसा महत्व रखता हैं, आपका वचन भी वैसा ही हैं, बल्कि उससे भी बढ़कर है। ‘नृपश्रेष्ठ ! दोनों भाई श्रीकृष्ण और अर्जुन आपके प्रिय साधन में लगे हुए हैं और उन दोनों के प्रिय कार्य में आप उनके पास जाउंगा।‘राजन् ! जैसे महात्म्य महासागर में प्रवेश करता हैं, उसी प्रकार में भी कुपित होकर द्रोणाचार्य की सेना में घुसता हूं।मैं वही जाउंगा्, जहां राजा जयद्रथ हैं। ‘पाण्डुनन्दन ! अर्जुन से भयभीत हो, अपनी सेना का आश्रय लेकर जयद्रथ जहां अश्वत्थामा, कर्ण और कृपाचार्य आदि श्रेष्ठ महारथियों से सुरक्षित होकर खड़ा हैं, वहीं मुझे पहुंचना है।‘प्रजापालक नरेश ! इस समय जहां जयद्रथ-वध के लिये उद्यत हुए अर्जुन खड़े हैं, उस स्थान को मैं यहां से तीन योजन दूर मानता हूं। ‘राजन् ! अर्जुन के तीन योजन दूर चले जाने पर भी मैं जयद्रथ-वध के पहले भी सुद्दढ़ हदय से अर्जुन के स्थान पर पहुंच जाउंगा। ‘नरेश्वर ! गुरु की आज्ञा प्राप्त हुए बिना कौन मनुष्य युद्ध करेगा और गुरु की आज्ञा मिल जाने पर मेरे-जैसा कौन वीर युद्ध नहीं करेगा?। ‘प्रभो ! मुझे जहां जाना हैं, उस स्थान को मैं जानता हूं।वह हल, शक्ति, गदा, प्राप्त, ढाल, तलवार, श्रष्टि, और तोमरों से भरा है। श्रेष्ठ धनुष-बाणों से परिपूर्ण शत्रु-सैन्यरूपी महासागर को मैं भय डालूंगा। ‘महाराज ! यह जो आप हजारों हाथियों की सेना देखते हैं, इसका नाम है आञ्जनक कुल ! इसमें पराक्रमशाली गजराज खड़े हैं, जिनके उपर प्रहार कुशल और युद्ध निपुण बहुत से ग्लेच्छा योद्धा सवार हैं। ‘राजन् ! ये हाथी की मेंघों की घटा के समान दिखायी देते हैं और पानी बरसाने वाले बादलों के समान मद की वर्षा करतेहे। हाथी सवारों के हांकने पर ये कभी युद्ध से पीछे नहीं हटते है। महाराज ! वध के अतिरिक्त और किसी उपाय से इनकी पराजय नहीं हो सकती।
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