महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 18 श्लोक 1-19

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अष्टादश (18) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)

महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: अष्टादश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
पाण्डवों का स्त्रियों सहित निराश लौटना, कुन्ती सहित गान्धारी और धृतराष्ट्र आदि का मार्ग में गंगा तट पर निवास करना

वैशम्पायन जी कहते हैं - नृपश्रेष्ठ ! कुन्ती की बात सुनकर निष्पाप पाण्डव बहुत लज्जित हुए और द्रौपदी के साथ वहाँ से लौटने लगे। कुन्ती को इस प्रकार वनवास के लिये उद्यत देख रनिवास की सारी स्त्रियाँ रोने लगीं । उन सबके रोने का महान् शब्द सब ओर गूँज उठा । उस समय पाण्डव कुन्ती को लौटाने में सफल न हो राजा धृतराष्ट्र की परिक्रमा और अभिवादन करके लौटने लगे। तब महातेजस्वी अम्बिकानन्दन धृतराष्ट्र ने गान्धारी और विदुर को सम्बोधित करके उनका हाथ पकड़कर कहा -‘गान्धारी और विदुर ! तुम लोग युधिष्ठिर की माता कुन्ती देवी को अच्छी तरह समझा-बुझाकर लौटा दो । युधिष्ठिर जैसा कह रहे हैं, वह सब ठीक है। पुत्रों का महान् फलदायक यह महान् ऐश्वर्य छोड़कर और पुत्रों का त्याग करके कौन नारी मूढ़ की भाँति दुर्गम वन में जायेगी ? यह राज्य में रहकर भी तपस्या कर सकती है और महान् दान-व्रत का अनुष्ठान करने में समर्थ हो सकती है; अतः आज मेरी बात ध्यान देकर सुने। ‘धर्म को जानने वाली गान्धारी ! मैं बहू कुन्ती की सेवा-शुश्रषा से बहुत संतुष्ट हूँ; अतः आज तुम इसे घर लौटने की आज्ञा दे दो। राजा धृतराष्ट्र के ऐसा कहने पर सुबलकुमारी गान्धारी ने कुन्ती से राजा की आज्ञा कह सुनायी और अपनी ओर से भी उन्हें लौटाने के लिये विशेष जोर दिया। परंतु धर्मपरायणा सती-साध्वी कुन्ती देवी वन में रहने का दृढ़ निश्चय कर चुकी थीं; अतः गान्धारी देवी उन्हें घर की ओर लौटा न सकीं। कुन्ती की यह स्थिति और वन में रहने का दृढ़ निश्चय जान कुरूश्रेष्ठ पाण्डवों को निराश लौटते देख कुरूकुल की सारी स्त्रियाँ फूट-फूटकर रोने लगीं। कुन्ती के सभी पुत्र और सारी बहूएँ जब लौट गयीं, तब महाज्ञानी राजा धृतराष्ट्र वन की ओर चले। उस समय पाण्डव अत्यन्त दीन और दुःख-शोक में मग्न हो रहे थे । उन्होने वाहनों पर बैठकर स्त्रियों सहित नगर में प्रवेश किया। उस दिन बालक, वृद्ध और स्त्रियों सहित सारा हस्तिनापुर नगर हर्ष और आनन्द से रहित तथा उत्सवशून्य सा हो रहा था। समस्त पाण्डवों का उत्साह नष्ट हो गया था। वे दीन एवं दुःखी हो गये थे । कुन्ती से बिछुड़कर अत्यन्त दुःख से आतुर हो वे बिना गाय के बछड़ों के समान व्याकुल हो गये थे। उधर राजा धृतराष्ट्र ने उस दिन बहुत दूर तक यात्रा करके संध्या के समय गंगा के तट पर निवास किया। वहाँ के तपोवन में वेदों के पारंगत श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने जहाँ-तहाँ विधिपूर्वक जो आग प्रकट करके प्रज्वलित की थी, वह बड़ी शोभा पा रही थी। भरतनन्दन ! फिर बूढ़े राजा धतराष्ट्र ने भी अग्नि को प्रकट एवं प्रज्वलित किया । त्रिविध अग्नियों की उपासना करके उनमें विधिपूर्वक आहुति दे राजा ने संध्याकालिक सूर्यदेव का उपस्थान कि। तदनन्तर विदुर और संजय ने कुरूप्रवीर राजा धृतराष्ट्र के लियों कुशों की शय्या बिछा दी। उनके पास ही गान्धारी के लिये एक पृथक् आसन लगा दिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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