महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 79 श्लोक 1-18

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एकोनाशीतितम (79) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: एकोनाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

अर्जुन और बभ्रुरवाहन का युद्ध एवं अर्जुन की मृत्‍यु

वैशम्‍पायनजी कहते हैं– जनमेजय ! मणिपुर नरेश बभ्रुवाहन ने जब सुना कि मेरे पिता आये हैं, तब वह ब्राह्मणों को आगे करके बहुत–सा धन साथ में लेकर बड़ी विनय के साथ उनके दर्शन के लिये नगर से बाहर निकला। मणिपुरनरेश को इस प्रकार आया देख परम बुद्धिमान धनंजय ने क्षत्रिय – धर्म का आश्रय लेकर उसका आदर नहीं किया।उस समय धर्मात्‍मा अर्जुन कुछ कुपित होकर बोले – बेटा ! तेरा यह ढंग ठीक नहीं है । जान पड़ता है, तू क्षत्रिय–धर्म से बहिष्‍कृत हो गया है। पुत्र ! मैं महाराज युधिष्‍ठिर के यज्ञ–सम्‍बन्‍धी अश्‍व की रक्ष करता हुआ तेरे राज्‍य के भीतर आया हूं । फिर भी तू मुझसे युद्ध क्‍यों नहीं करता ? तुझ दुर्बुद्धि को धिक्‍कार है, तू निश्‍चय ही क्षत्रिय धर्म से भ्रष्‍ट हो गया है, क्‍योंकि युद्ध के लिये आये हुए मेरा स्‍वागत–सत्‍कार तू सामनीति से कर रहा है।।तूने संसार में जीवित रहकर भी कोई पुरुषार्थ नहीं किया । तभी तो एक स्‍त्री की भांति तू यहां युद्ध के लिये आये हुए मुझे शान्‍तिपूर्वक साथ लेने के लिये चेष्‍टा कर रहा है। दुर्बुद्धे ! नराधम ! यदि मैं हथियार रखकर ख़ाली हाथ तेरे पास आता तो इस ढंग से मिलना ठीक हो सकता था। पतिदेव अर्जुनजब अपने पुत्र बभ्रुवाहन से ऐसी बात कह रहे थे, उस समय नागकन्‍या उलूपी उस बात को सुनकर उनके अभिप्राय को जान गयी और उनके द्वारा किये गये पुत्र के तिरस्‍कार को सहन न कर सकने के कारण वह धरती छेदकर वहां चली आयी। प्रभो ! उसने देखा कि पुत्र बभ्रुवाहन नीचे मुंह किये किसी सोच विचार में पड़ा हुआ है और युद्धार्थी पिता उसे बारंबार डांट–फटकार रहे हैं । तब मनोहर अंगों वाली नागकन्‍या उलूपी धर्म – निपुण बभ्रुवाहन के पास आकर यह धर्मसम्‍मत बात बोली-बेटा तुम्‍हें विदित होना चाहिये कि मैं तुम्‍हारी विमाता नागकन्‍या उलूपी हूं । तुम मेरी आज्ञा का पालन करो । इससे तुम्‍हें महान् धर्म की प्राप्‍ति होगी। तुम्‍हारे पिता कुरुकुल केश्रेष्‍ठ वीर और युद्ध के मद से उन्‍मत्‍त रहने वाले हैं । अत: इनके साथ अवश्‍य युद्ध करो । ऐसा करने से ये तुम पर प्रसन्‍न होंगे । इसमें संशय नहीं है। भरतश्रेष्‍ठ ! माता के द्वारा इस प्रकार अमर्ष दिलाये जाने पर महातेजस्‍वी राजा बभ्रुवाहन ने मन–ही–मन युद्ध करने का निश्‍चय किया। सुवर्णमय कवच पहनकर तेजस्‍वी शिरस्‍त्राण ( टोप ) धारण करके वह सैकड़ों तरकसों से भरे हुए उत्‍तम रथ पर आरूढ़ हुआ। उस रथ में सब प्रकार की युद्ध–साम्रगी सजाकर रखी गयी थी । मन के समान वेगशाली घोड़े जुते हुए थे । चक्र और अन्‍य आवश्‍यक सामान भी प्रस्‍तुत थे । सोने के भाण्‍ड उसकी शोभा बढ़ाते थे । उस पर सिंह के चिन्‍हों वाली ऊंची ध्‍वजा फहरा रही थी । उस परम पूजित उत्‍तम रथ पर सवार हो श्रीमान् राजा बभ्रुवाहन अर्जुन का सामना करने के लिये आगे बढ़ा। पार्थ द्वारा सुरक्षित उस यज्ञ सम्‍बन्‍धी अश्‍व के पास जाकर उस वीर ने अश्‍व शिक्षा विशारद पुरुषों द्वारा उसे पकड़वा लिया। घोड़े कोपकड़ा गया देख अर्जुन मन–ही–मन बहुत प्रसन्‍न हुए । यद्यपि वे भूमि पर खड़े थे तो भी रथ पर बैठे हुए अपने पुत्र को युद्ध के मैंदान में आगे बढ़ने से रोकने लगे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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