महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 111 श्लोक 1-19
एकादशाधिकशततम (111) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
सात्यकि और युधिष्ठिर का संवाद
संजय कहते हैं-राजन् ! धर्मराज का वह वचन प्रेम-पूर्ण, मन को प्रिय लगनेवाला,मधुर अक्षरों से युक्त, सामयिक, विचित्र, कहने योग्य तथा न्यायसंगत था। भरतश्रेष्ठ ! उसे सुनकर शिनिप्रवर सात्यकि ने युधिष्ठिर को इस प्रकार उतर दिया-। ‘अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले नरेश ! आपने अर्जुन को सहायताके लिये जो-जो बातें कही हैं, वह सब मैंने सुनली। आपका कथन अद्भुत, न्यायसंगत और यशकी वृद्धि करने वाला है। ‘राजेन्द्र ! ऐसे समय मे मेरे-जैसे प्रिय व्यक्ति को देखकर आप जैसी बातें कह सकते हैं, वैसी ही कही है। आप अर्जुन से जो कुछ बात कह सकते हैं, वही आपने मुझसे भी कहा है। ‘महाराज ! अर्जुन के हित के लिये मुझे किसी प्रकार भी अपने प्राणों की रक्षा की चिन्ता नही करनी है; फिर आपका आदेश मिलने पर मैं इस महायुद्ध में क्या नहीं कर सकता हूं?। ‘नरेन्द्र ! आपकी आज्ञा हो तो देवताओं, असुरों तथा मनुष्यों सहित तीनों लोको के साथ में युद्ध कर सकता हैं।फिर यहां इस अत्यन्त दुर्बल कौरवी सेंना का सामना करना कौन बड़ी बात हैं।‘राजन्! मैं रणक्षेत्र में आज चारों ओर घूमकर दुर्योधन की सेना के साथ युद्ध करुंगा और उस पर विजय पाउंगा। यह मे आपसे सच्ची बात कहता हूं। ‘राजन् ! मैं कुशलतापूर्वक रहकर सकुशल अर्जुन के पास पहुंच जाउंगा और जयद्रथ के मारे जाने पर उनके साथ ही आपके पास लौट आउगा। ‘परंतु नरेश्वर ! भगवान् श्रीकृष्ण तथा बुद्धिमान अर्जुन ने युद्ध के लिये जाते समय मुझ से जो कुछ कहा था, वह सब आपको सूचित कर देना मेरे लिये अत्यन्त आवश्यक हैं। ‘अर्जुन ने सारी सेना के बीच में भगवान् श्रीकृष्ण के सुनते हुए मुझे बारंबार कहकर द्दढ़तापूर्वक बांध लिया है।‘उन्होंने कहा था- ‘माधव ! आज मैं जबतक जयद्रथ का वध करता है, तब तक युद्ध में तुम श्रेष्ठ बुद्धि का आश्रय लेकर पूरी सावधानी के साथ राजा युधिष्ठिर की रक्षा करो। ‘’महाबाहो ! मैं तुम पर अथवा महारथी प्रद्युम्न पर ही भरोसा करके राजा को धरोहर की भांति सौंपकर निरपेक्ष भाव से जयद्रथ के पास जा सकता है। ‘’माधव ! तुम जानते ही हो कि रणक्षेत्र में श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा सम्मानित आचार्य द्रोण कितने वेगशाली है। उन्होंने जो प्रतिज्ञा कर रक्खी हैं, उसे भी तुम प्रतिदिन सुनते ही होगे।‘’द्रोणाचार्य भी धर्मराज को बंदी बनाना चाहते हैं और वे समरांगण में राजा युधिष्ठिर को कैद करने में समर्थ भी हैं। ‘’ऐसी अवस्था में नरश्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिर की रक्षा का सारा भार तुम पर ही रखकर आज मैं सिन्ध्ुाराज के वध के लिये जाउंगा।‘’माधव ! यदि द्रोणाचार्य रणक्षेत्र में धर्मराज को बलपूर्वक बंदी न बना सकें तो मैं जयद्रथ का वध करके शीघ्र ही लौट आउंगा। ‘’मधुवंशी वीर ! यदि द्रोणाचार्य ने नरश्रेष्टठ युधिष्ठिर को कैद कर लिया तो सिन्धुराज का वध नहीं हो सकेगा और मुझे भी महान् दु:ख होगा। ‘’यदि सत्यवादी नरश्रेष्ठ पाण्डुकुमार युधिष्ठिर इस प्रकार बंदी बनाये गये तो निश्चय ही हमें पुन: वन में जाना पड़ेगा।‘’यदि द्रोणाचार्य रणक्षेत्र में कुपित होकर युधिष्ठिर को कैद कर लेंगे तो मेरी वह विजय अवष्य ही व्यर्थ हो जायगी।
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