महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 59 श्लोक 1-11
एकोनषष्टितम (59) अध्याय: द्रोण पर्व ( अभिमन्युपर्व )
भगवान श्रीराम का चरित्र नारदजी कहते हैं – सृंजय ! दशरथनन्दन भगवान् श्रीराम भी यहां से परमधाम को चले गये थे, यह मेरे सुनने में आया है । उनके राज्य में सारी प्रजा निरन्तर आनन्दमग्न रहती थी । जैसे पिता अपने औरस पुत्रों का पालन करता है, उसी प्रकार वे समस्त प्रजा का स्नेहपूर्वक संरक्षण करते थे । वे अत्यन्त तेजस्वी थे और उनमें असंख्य गुण विद्यमान थे । अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले लक्ष्मण के बडे भाई श्रीराम ने पिता की आज्ञा से चौदह वर्षों तक अपनी पत्नी सीता (और भाई लक्ष्मण) के साथ वन में निवास किया था । नरश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्र जी ने जनस्थान में तपस्वी मुनियों की रक्षा के लिये चौदह हजार राक्षसों का वध किया था । वहीं रहते समय लक्ष्मण सहित श्रीराम को मोह में डालकर रावण नाम राक्षस ने उनकी पत्नी विदेहनन्दिनी सीता को हर लिया । अपनी मनोरमा पत्नी के राक्षस द्वारा हर लिये जाने का समाचार जटायु के मुख से सुनकर श्रीरामचन्द्र जी आतुर एवं शोकसंतप्त हो वानरराज सुग्रीव के पास गये । सुग्रीव से मिलकर श्रीराम ने (उनके साथ मित्रता की और) महाबली वानरों के साथ ले महासागर में पुल बांधकर समुद्र को पा किया । वहां पुलस्त्यवंशी राक्षसों को उनके सुहृदों और बन्धु-बान्धवों सहित मारकर श्रीराम ने अपने प्रधान अपराधी अत्यन्त घोर मायावी लोककंटक पुलस्त्य नन्दन रावण को, जो दूसरों के द्वारा कभी जीता नहीं गया था, कुपित होकर समर भूमि में मार डाला । ठीक उसी तरह, जैसे पूर्वकाल में भगवान् शंकर ने अन्धकासुर को मारा था । जो देवताओं और असुरों के लिये भी अवध्य था, देवताओं और ब्राह्मणों के लिये कण्टकरूप उस पुलस्त्यवंशी रावण का रणक्षेत्र में महाबाहु श्रीरामचन्द्र जी ने उसके दलबल सहित संहार कर डाला । इस प्रकार वहां युद्धस्थल में अपने वैरी रावण का वध करके वे धर्मपत्नी सीता से मिले । तत्पश्चात धर्मात्मा विभीषण को उन्होंने लंका का राजा बना दिया ।तदनन्तर वीर श्रीरामचन्द्र जी अपनी पत्नी तथा वानरसेना के साथ शोभा वाली पुष्पक विमान के द्वारा अयोध्या में आये ।राजन! अयोध्या में प्रवेश करके महायशस्वी श्रीराम वहां माताओं, मित्रों, मंत्रियों, ऋत्विजों तथा पुरोहितों की सेवा में सदैव संलग्न रहने लगे । फिर मंत्रियों ने उनका राज्याभिषेक कर दिया । इसके बाद वानरराज सुग्रीव, हनुमान और अंगद को विदा करके अपने वीर भ्राता भरत, शत्रुघ्न और लक्ष्मण का आदर करते हुए विदेहनन्दिनी सीता द्वारा परम प्रेमपूर्वक सम्मानित हो श्रीरामचन्द्र जी ने चारों समुद्रों तक की सारी पृथ्वी का शासन किया और समस्त प्रजाओं पर अनुग्रह करके वे देवतओं द्वारा सम्मानित हुए । देवर्षिगणों से सेवित श्रीराम ने विधिपूर्वक राज्य पाकर अपनी कीर्ति से सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त कर दिया और समस्त प्राणियों पर अनुग्रह करते हुए वे धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करने लगे । भगवान् राम ने निर्बाधरूप से राजसूय और अश्वमेघ-यज्ञ का अनुष्ठान किया और देवराज इन्द्र को हविष्य से तृप्त करके उन्हें अत्यन्त आनन्द प्रदान किया । राजा राम ने नाना प्रकार के दूसरे-दूसरे यज्ञ भी किये थे, जो अनेक गुणों से सम्पन्न थे । श्रीरामचन्द्र जी ने भूख और प्यास को जीत लिया था । सम्पूर्ण देहधारियों के रोगों को नष्ट कर दिया था । वे उत्तम गुणों से सम्पन्न हो सदैव अपने तेज से प्रकाशित होते थे ।
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