महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 1 श्लोक 1-18
प्रथम (1) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
युधिष्ठिर के पास नारद आदि महर्षियों का आगमन और युधिष्ठिर का कर्ण के साथ अपना सम्बंध बताते हुए कर्ण को शाप मिलने का वृत्तान्त पूछना।
अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण एवं उनके नित्य सखा नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन एवं उनकी लीला प्रकट करने वाली भगवती सरस्वती और उनकी लीलाओं का संकलन करने वाले महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके जय (महाभारत) का पाठ करना चाहिये।
वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन! पाण्डव एवं विदुर एवं धृतराष्ट तथा भरतवंश की सम्पूर्ण स्त्रियाँ- इन सबने गंगा जी में अपने समस्त सुहृदयों के लिये जलाजंलिया प्रदान कीं। तदनन्तर वे महामनस्वी पाण्डव आत्म शुद्धि का सम्पादन करने के लिये एक मास तक वहीं (गंगातट पर ) नगर से बाहर टिके रहे। मृतकों के लिये जलाअंजलि देकर बैठे हुए धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर के पास बहुत से श्रेष्ठ ब्रह्मर्षि सिद्ध महात्मा पधारे। द्वैपायन, व्यास, नारद, महर्षि देवल, देवस्थान, कण्व तथा उनके श्रेष्ठ शिष्य भी वहाँ आए। इनके अतिरिक्त अनेक वेदवेत्ता एवं पवित्र बुद्धिवाले ब्राह्मण, गृहस्थ एवं स्नातक संत भी वहाँ आकर कुरूश्रेष्ठ युधिष्ठिर से मिले। वे महात्मा महर्षि वहाँ पहुंच कर विधिपूर्वक पूजित हो राजा के दिये हुए बहुमूल्य आसनों पर विराजमान हुए। उस समय के अनुरूप पूजा स्वीकार करके वे सैकड़ों, हज़ारों ब्राह्मण भागीरथी के पावन तट पर शोक से व्याकुल हुए राजा युधिष्ठिर को सब ओर से घेरकर आश्वासन देते हुए यथोचित रूप से उनके पास बैठे रहे। उस समय श्री कृष्णद्वैपायन आदि मुनियों के साथ बात-चीत करके सबसे पहले नारद जी ने धर्मपुत्र युधिष्ठिर से कहा- ’महाराज युधिष्ठिर! आपने अपने बाहुबल, भगवान श्रीकृष्ण की कृपा तथा धर्म के प्रभाव से इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर विजय पायी है। ’पाण्डुनन्दन! सौभाग्य की बात है कि आप सम्पूर्ण जगत् को भय में डालने वाले इस संग्राम से छुटकारा पा गये। अब क्षत्रिय धर्म के पालन में तत्पर रहकर आप प्रसन्न तो हैं न? नरेश्वर! आपके शत्रु तो मारे जा चुके। अब आप अपने सुहृदयों को तो प्रसन्न रखते हैं न? इस राज्य- लक्ष्मी को पाकर आपको कोई शोक तो नहीं सता रहा?'
युधिष्ठिर बोले- मुनिवर! भगवान श्रीकृष्ण के बाहुबल का आश्रय लेने से, ब्राह्मणों की कृपा होने से तथा भीमसेन और अर्जुन के बल से इस सारी पृथ्वी पर विजय प्राप्त हुई। परंतु ! मेरे हृदय में निरन्तर यह विशाल दुःख बना रहता है कि मैंने लोभवश अपने बन्धु-बांधवों का वृहद संहार करा डाला। भगवन! सुभद्राकुमार अभिमन्यु तथा द्रौपदी के प्यारे पुत्रों को मरवा कर मिली हुई विजय भी मुझे पराजय- सी ही जान पड़ती है। वृष्णिकुल की कन्या मेरी बहू सुभद्रा, जो इस समय द्वारिका में रहती है, जब मधुसूदन श्री कृष्ण यहां से लौटकर द्वारिका जायेंगे, तब इनसे क्या कहेगी? यह द्रुपदकुमारी कृष्णा अपने पुत्रों के मारे जाने से अत्यन्त दीन हो गयी है। इस बेचारी के भाई-बन्धु भी मार डाले गये। यह हम लोगों के प्रिय और हित में सदा लगी रहती है। मैं जब-जब इसकी ओर देखता हूँ, तब-तब मेरे मन में अधिक से अधिक पीड़ा होने लगती है। भगवन नारद! यह दूसरी बात जो मैं आपसे बता रहा हूँ और भी दुःख देनेवाली है। मेरी माता कुन्ती ने कर्ण के जन्म का रहस्य छिपाकर मुझे बड़े भारी दुःख में डाल दिया है।