महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 6 श्लोक 1-19
षष्ठ (6) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अश्वमेध पर्व)
नारदजी की आज्ञा से मरुत्त का उनकी बतायी हुई युक्ति के अनुसार संवर्त से भेंट करना
व्यासजी कहते हैं- राजन! इस प्रसंग में बुद्धिमान राजा मरुत्त और बृहस्पति के इस पुरातन संवादविषयक इतिहास का उल्लेख किया जाता है।
राजा मरुत्त ने जब यह सुना कि अंगिरा के पुत्र बृहस्पतिजी ने मनुष्य के यज्ञ न कराने की प्रतिज्ञा कर ली है, तब उन्होंने एक महान् यज्ञ का आयोजन किया। बातचीत करने मे ंकुशल करन्धम पौत्र मरुत्त ने मन-ही-मन यज्ञ का संकल्प करके बृहस्पतिजी के पास जाकर उनसे इस प्रकार कहा-‘भगवन! तपोधन! गुरुदेव! मैंने पहले एक बार आकर जो आप से यज्ञ के विषय में सलाह ली थी और आपने जिसके लिये मुझे आज्ञा दी थी, उस यज्ञ को अब मैं प्रारम्भ करना चाहता हँू। आपके कथनानुसार मैंने सब सामग्री एकत्र कर ली है। साधु पुरुष! मैं आपका पुराना यजमान भी हूँ। इसलिये चलिये, मेरा यज्ञ करा दीजिये’। बृहस्पति जी ने कहा- राजन! अब मैं तुम्हारा यज्ञ कराना नहीं चाहता। देवराज इन्द्र ने मुझे अपना पुरोहित बना लिया है और मैंने भी उनके सामने यह प्रतिज्ञा कर ली है। मरुत्त बोले- विप्रवर! मैं अपके पिता के समय से ही आपका यजमान हूँ तथा विशेष सम्मान करता हूँ।
आपका शिष्य हूँ और आपकी सेवा में तत्पर रहता हूँ अत: मुझे अपनाइये। बृहस्पति जी ने कहा- मरुत्त! अमरों का यज्ञ कराने के बाद मैं मरणधर्मा मनुष्यों का यज्ञ कैसे कराऊँगा? तुम जाओ य रहो। अब मैं मनुष्यों का यज्ञकार्य कराने से निवृत्त हो गया हूूँ। महाबाहो! मैं तुम्हारा यज्ञ नहीं कराऊँगा। तुम दूसरे जिसको चाहो उसी को अपना पुरोहित बना लो। जो तुम्हारा यज्ञ करायेगा। व्यासजी कहते हैं- राजन! बूहस्पतिजी से ऐसा उत्तर पाकर महाराज मरुत्त को बड़ा संकोच हुआ। वे बहुत खिन्न होकर लौटे जा रहे थे, उसी समय मार्ग में उन्हें देवर्षि नारदजी का दर्शन हुआ। देवर्षि नारद के साथ समागम होने पर राजा मरूत्त यथाविधि हाथ जोड़कर खड़े हो गये। तब नारदीजी ने उनसे कहा। ‘राजर्षे! तुम अधिक प्रसन्न नहीं दिखायी देते हो। निष्पाप नरेश! तुम्हारे यहाँ कुशल तो है न? कहाँ गये थे और किस कारण तुम्हें यह खेद का अवसर प्राप्त हुआ है। राजन! नृपश्रेष्ठ! यदि मेरे सुनने योज्य हो तो बताओ। नरेश्वर! मैं पूर्ण यत्न करके तुम्हारा दु:ख दूर करूँगा।
महर्षि नारद के ऐसा कहने पर राजा मरूत्त ने उपाध्याय (पुरोहित)- से बिछोह होने का सारा समाचार उन्हें कहा सुनाया। मरूत्तने कहा- नारद जी! मैं अंगिराके पुत्र देवगुय बृहस्पति के पास गया। मेरी यात्रा का उ्देश्य यह था कि उन्हें अपना यज्ञ कराने के लिये ऋत्विज् के रूप में देखूँ, किंतु उन्होंने मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं की। नारद्! मेरे गुरू ने मुझ पर मरणधर्मा मनुष्य होने का दोष लगाकर मुझे त्याग दिया। उनके द्वारा प्रकार अस्वीकार किये जाने के कारण अब मैं जीवित रहना नहीं चाहता। व्यासजी कहते हैं- महाराज! राजा मरूत्त ने ऐसा कहने पर देवर्षि नारद ने अपनी अमृतमयी वाणी के द्वारा अविक्षित कुमार को जीवन प्रदान करते हुए से कहा। नारदजी बोले राजन्! अंगिरा के दूसरे पुत्र संवर्त बड़े धार्मिक है। वे दिगम्बर होकर प्रजा को मोह में डालने हुए अर्थात सबसे छिपे रहकर सम्पूर्ण दिशाओं में भ्रमण करते करते हैं। यदि बृहस्पति तुम्हें अपना यजमान बनाना नहीं चाहते है तो तुम संवर्तक के ही पास चले जाओ। संवर्त बड़े तेजस्वी हैं, वे प्रसन्नतापूर्वक तुम्हारा यज्ञ करा देंगें।
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