महाभारत शल्य पर्व अध्याय 11 श्लोक 1-23
एकादश (11) अध्याय: शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)
शल्य का पराक्रम, कौरव-पाण्डव योद्धाओं के द्वन्द्वयुद्ध तथा भीमसेन के द्वारा शल्य की पराजय
संजय कहते हैं- महाराज ! उस महासमर में जब दोनों पक्षों की सेनाएँ परस्पर की मार खाकर भय से व्याकुल हो उठीं, दोनों दलों के योद्धा पलायन करने लगे, हाथी चिग्घाड़ने तथा पैदल सैनिक कराहने और चिल्लाने लगे; बहुत-से घोडे़ मारे गये, सम्पूर्ण देहधारियों का घोर भयंकर एवं विनाशकारी संहार होने लगा, नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र परस्पर टकराने लगे, रथ और हाथी एक दूसरे से उलझ गये, युद्धकुशल योद्धाओं का हर्ष और कायरों का भय बढ़ाने वाला संग्राम होने लगा, एक दूसरे के वध की इच्छा से उभय पक्ष की सेनाओं में दोनों दलों के योद्धा प्रवेश करने लगे, प्राणों की बाजी लगाकर महाभयंकर युद्ध का जूआ आरम्भ हो गया तथा यमराज के राज्य की वृद्धि करने वाला घोर संग्राम चलने लगा, उस समय पाण्डव अपने तीखे बाणों से आपकी सेना का संहार करने लगे। इसी प्रकार आपके योद्धा भी पाण्डवसैनिकों के वध में प्रवृत्त हो गये । राजन् ! पूर्वाहृकाल प्राप्त होने पर सूर्योदय के समय जब कायरों का भय बढा़ने वाला वर्तमान युद्ध चल रहा था, उस समय महात्मा अर्जुन से सुरक्षित शत्रु योद्धा, जो लक्ष्य वेधने में कुशल थे, मृत्यु को ही युद्ध से निवृत्त होने की सीमा नियत करके आपकी सेना के साथ जूझने लगे । पाण्डव योद्धा बलवान् और प्रहारकुशल थे। उनका निशाना कभी ख़ाली नहीं जाता था। उनकी मार खाकर कौरव सेना दावानल से घिरी हुई हरिणी के समान अत्यन्त संतप्त हो उठी । कीचड़ में फँसी हुई दुर्बल गाय के समान कौरव सेना को बहुत कष्ट पाती देख उसका उद्धार करने की इच्छा से राजा शल्य ने उस समय पाण्डवों पर आक्रमण किया । मद्रराज शल्य ने अत्यन्त क्रोध में भरकर उत्तम धनुष हाथ में ले संग्राम में अपने वध के लिये उद्यत हुए पाण्डवों पर वेगपूर्वक धावा किया । भूपाल ! समर में विजय से सुशोभित होने वाले पाण्डव भी मद्रराज शल्य के निकट जाकर उन्हें अपने पैने बाणों से बींधने लगे । तब महारथी मद्रराज धर्मराज युधिष्ठिर के देखते-देखते उनकी सेना को अपने-सैकड़ों तीखें बाणों से संतप्त करने लगे । उस समय नाना प्रकार के बहुत-से अशुभसूचक निमित्त प्रकट होने लगे। पर्वतोंसहित पृथ्वी महान् शब्द करती हुई डोलने लगी । आकाश में बहुत-सी उल्काएँ सूर्यमण्डल से टकराकर पृथ्वी पर गिरने लगीं। उनके साथ दण्डयुक्त शूल भी गिर रहे थे। उन उल्काओं के अग्रभाग अपनी दीप्ति से चमक रहे थे। वे सब-की-सब चारों ओर बिखरी पड़ती थीं । प्रजानाथ ! नरेश्वर ! उस समय मृग, महिष और पक्षी आपकी सेना को बारंबार दाहिने करके जाने लगे । शुक्र और मंगल बुध से संयुक्त हो पाण्डवों के पृष्ठभाग में तथा अन्य सब नरेशों के सम्मुख उदित हुए थे । शस्त्रों के अग्रभाग में ज्वाला-सी प्रकट होती और नेत्रों मं चकाचैंध पैदा करके वह पृथ्वीपर गिर जाती थी। योद्धाओं- के मस्तकों और ध्वजाओं में कौए और उल्लू बारंबार छिपने लगे।। नरेश्वर ! तत्पश्चात् एक साथ संगठित होकर जूझने वाले दोनों पक्षों केक वीरों का वह युद्ध बड़ा भयंकर हो गया। राजन्! कौरव-योद्धाओं ने अपनी सारी सेनाओं को एकत्र करके पाण्डव सेना पर धावा बोल दिया । धर्मात्मा राजा शल्य ने वर्षा करनेवाले इन्द्र की भाँति कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर पर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी । महाबली शल्य ने भीमसेन, द्रौपदी के सभी पुत्र, माद्रीकुमार नकुल-सहदेव, धृष्टधुम्न, सात्यकि और शिखण्डी इनमें से प्रत्येक को शिलापर तेज किये हुए सुवर्णमय पंखवाले दस दस बाणों से घायल कर दिया। तत्पश्चात् वे वर्षा काल में जल बरसानेवाले इन्द्र के समान बाणों की वृष्टि करने लगे ।
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