महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 34 श्लोक 1-25
चतुस्त्रिश (34) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)
संजय के द्वारा अभिमन्यु की प्रशंसा, द्रोणाचार्य द्वारा चक्रव्यूह का निर्माण
संजय कहते है – राजन् ! श्रीकृष्ण सहित पाँचों पाण्डव देवताओं के लिये भी दुर्जय हैं । वे समरभूमि में अत्यन्त भयंकर कर्म करनेवाले हैं । उनके कर्मो द्वारा ही उनका परिश्रम अभिव्यक्त होता है । सत्वगुण, कर्म, फल, बुद्धि, कीर्ति, यश और श्री के द्वारा युधिष्ठिर के समान पुरुष दूसरा कोई न तो हुआ है और न होने वाला ही है । कहते है, राजा युधिष्ठिर सत्यधर्मपरायण और जितेन्द्रिय होने के साथ ही ब्राह्राण-पूजन आदि सद्रुणों के द्वारा सदा ही स्वर्गलोक को प्राप्त हैं । राजन ! प्रलयकाल के यमराज, पराक्रमी परशुराम और रथपर बैठे हुए भीमसेन – ये तीनों एक समान कहे जाते हैं । रणभूमि में प्रतिज्ञापूर्वक कर्म करने मे कुशल, गाण्डीवधारी कुन्तीकुमार अर्जुन के लिये तो मुझे इस पृथ्वीपर कोई उनके योग्य उपमा ही नही मिलती है । बड़े भाई के प्रति अत्यन्त भक्ति, अपने पराक्रम को प्रकाशित न करना, विनयशीलता, इन्द्रिय संयम, उपमारहित रूप तथा शौर्य- ये नकुल में छ: गुण निश्चित रूप से निवास करते हैं । वेदाध्ययन, गम्भीरता, मधुरता, सत्य, रूप और पराक्रम की दृष्टि से वीर सहदेव सर्वथा अश्विनीकुमारों के समान हैं, यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध है । भगवान श्रीकृष्ण में जो उज्जवल गुण हैं तथा पाण्डवों में जो उज्जवल गुण विधमान हैं, वे समस्त गुण समुदाय अभिमन्यु में निश्चय ही एकत्र हुए दिखायी देते थे । युधिष्ठिर के पराक्रम, श्रीकृष्ण के उत्तम चरित्र एवं भयंकर कर्म करनेवाले भीमसेन के वीरोचित कर्मों के समान ही अभिमन्यु के भी पराक्रम, चरित्र और कर्म थे । वह रूप, पराक्रम और शास्त्रज्ञान में अर्जुन क समान तथा विनयशीलता में नकुल और सहदेव के तुल्य था । धृतराष्ट्र बोले– सूत ! मैं किसी भी पराजित न होने वाले सुभद्राकुमार अभिमन्यु के विषय में सारा वृतान्त सुनना चाहता हॅू । वह युद्ध में कैसे मारा गया ?
संजय ने कहा– महाराज ! स्थिर हो जाइये और जिसे धारण करना कठिन है, उस शोक को अपने हृदय में ही रोके रखिये । मैं आपसे बन्धु–बान्धवों के महान् विनाश का वर्णन करूँगा, उसे सुनिये । राजन् ! आचार्य द्रोण जिस चक्रव्यूह का निर्माण किया था, उसमे इन्द्र के समान पराक्रम प्रकट करने वाले समस्त राजाओं का समावेश कर रखा था । असमें आरों के स्थान में सूर्य के समान तेजस्वी राजकुमार खड़े किये गये थे । उस समय वहॉ समस्त राजकुमारों का समुदाय उपस्थित हो गया था । उन सबने प्राणों के रहते युद्ध से विमुख न होने की प्रतिज्ञा कर ली थी । उन सबकी भुजाऍ सुवर्णमयी थी, सबने लाल वस्त्र धारण कर रखे थे और सबके आभूषण भी लाल रंग के ही थे। सबके रथों पर लाल रंग की पताकाएं फहरा रही थी, सबने सोने की मालाऍ पहन रखी थी, सबके अगो में चन्दन और अगुरू का लेप किया गया था और सभी फूलों के गजरों तथा महीन वस्त्रों से सुशोभित थे । वे सब एक साथ युद्ध के लिये उत्सुक होकर अर्जुन पुत्र अभिमन्यु की ओर दौड़े । सुदृढ़ धनुष धारण करनेवाले उन आक्रमणकारी वीरों की संख्या दस हजार थी । उन्होंने आपके प्रियदर्शन पौत्र लक्ष्मण को आगे करके धावा किया था । उन सबने एक दूसरे के दु:ख को समान समझा था और वे परस्पर समानभाव से साहसी थे । वे एक दूसरे से होड़ लगाये रखते थे और आपस में एक दूसरे के हित साधन में तत्पर रहते थे । राजेन्द्र ! राजा दुर्योधन सेना के मध्यभाग में विराजमान था । उसके ऊपर श्रेतछत्र तना हुआ था । वह कर्ण, दु:शासन तथा कृपाचार्य आदि महारथियों से घिरकर देवराज इन्द्र के समान शोभा पा रहा था । उसके दोनों ओर चॅवर और व्यंजन डुलाये जा रहे थे । वह उदयकाल के सूर्य की भॉति प्रकाशित हो रहा था । उस सेना के अग्रभाग में सेनापति द्रोणाचार्य खड़े थे । वही सिंधुराज श्रीमान् राजा जयद्रथ भी मेरू पर्वत की भॉति खड़ा था । उसके पार्श्व भाग में अश्वत्थामा आदि महारथी विघमान थे । महाराज ! देवताओं के समान शोभा पानेवाले आपके तीस पुत्र, जुआरी गान्धारराज शकुनि, शल्य तथा भूरिश्रवा-ये महारथी वीर सिंधुराज जयद्रथ के पार्श्वभाग में सुशोभित हो रहे थे । तदनन्तर मरने पर ही युद्ध से निवृत होंगे ऐसा निश्चय करके आपके और शत्रुपक्ष के योद्धाओं में अत्यन्त भंयकर युद्ध आरम्भ हुआ, जो रोंगटे खड़े कर देनेवाला था ।
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