महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 38 श्लोक 1-15
अष्टात्रिंश (38) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
सत्त्वगुण के कार्य का वर्णन और उसके जानने का फल
ब्रह्माजी ने कहा- महर्षियों! अब मैं तीसरे उत्तम गुण (सत्त्वगुण) का वर्णन करूँगा, जो जगत् में सम्पूर्ण प्राणियों का हितकारी और श्रेष्ठ पुरुषों का प्रशंसनीय धर्म है। आनन्द, प्रसन्नता, उन्नति, प्रकाश, सुख, कृपणता का अभाव, निर्भयता, संतोष, श्रद्धा, क्षमा, धैर्य, अहिंसा, समता, सत्य, सरलात, क्रोध का अभाव, किसी के दोष न देखना, पवित्रता, चतुरता और पराक्रम- ये सत्त्वगुण के कार्य हैं। नाना प्रकार की सांसारिक जानकारी, सकाम व्यवहार, सेवा और श्रम व्यर्थ है- ऐसा समझकर जो कल्याण के साधन में लग जाता है, वह परलोक में अक्षय सुख का भागी होता है। ममता, अहंकार और आशा से रहित होकर सर्वत्र समदृष्टि रखना और सर्वथा निष्काम हो जाना ही श्रेष्ठ पुरुषों का सनातन धर्म है। विश्वास, लज्जा, तितिक्षा, त्याग, पवित्रता, आलस्य रहित होना, कोमलता, मोह का अभाव, प्राणियों पर दया करना, चुगली न खाना, हर्ष, संतोष, गर्वहीनता, विनय, सद्बर्ताव, शान्ति कर्म में शुद्ध भाव से प्रवृत्ति, उत्तम बुद्धि, आसक्ति से छूटना, जगत् के भोगों से उदासीनता, ब्रह्मचर्य, सब प्रकार का त्याग, निर्ममता, फल की कामना न करना त था धर्म का निरन्तर पालन करते रहना- ये सब सत्त्वगुण के कार्य हैं। सकाम दान, यज्ञ, अध्ययन, व्रत, परिग्रह, धर्म और तप- ये सब व्यर्थ हैं, ऐसा समझकर जो उपर्युक्त बर्ताव का पालन करते हुए इस जगत् में सत्य का आश्रय लेते हैं और वेद की उत्पतित के स्थान भूत पर ब्रह्म परमात्मा में निष्ठा रखते हैं, वे ब्राह्मण ही धीर और साधुदर्शी माने गये हैं। वे धीर मनुष्य सब पापों का त्याग करके शोक से रहित हो जाते हैं और स्वर्ग लोक में जाकर वहाँ के भोग भोगने के लिऐ अनेक शरीर धारण कर लेते हैं। सत्त्वगुण सम्पन्न महात्मा स्वर्गवासी देवताओं की भाँति ईशित्व, वशित्व और लघिमा आदि मानसिक सिद्धियों को प्राप्त करते हैं। वे ऊर्ध्वस्त्रोता और वैकारिक देवता माने गये हैं। (योग बल से) स्वर्ग को प्राप्त होने पर उनका चित्त उन-उन भोगजनित संस्कारों से विकृत होता है। उस समय वो जो-जो चाहते हैं, उस-उस वस्तु को पाते और बाँटते हैं। श्रेष्ठ ब्राह्मणों! इस प्रकार मैंने तुम लोगों से सत्त्वगुण के कार्यों का वर्णन किया। जो इस विषय को अच्छी तरह जानता है, वह जिस-जिस वस्तु की इच्छा करता है, उसी को पा लेता है। यह सत्त्वगुण का विशेष रूप से वर्णन किया गया तथा सत्त्वगुण का कार्य भी बताया गया। जो मनुष्य इन गुणों को जानता है, वह सदा गुणों को भोगता हैं, किंतु उनसे बंधता नहीं।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में गुरु-शिष्य संवाद विषयक अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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