महाभारत सभा पर्व अध्याय 6 श्लोक 1-19
षष्ठ (6) अध्याय: सभा पर्व (लोकपालसभाख्यान पर्व)
युधिष्ठिर की सभाओं के विषय में जिज्ञासा
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय ! देवर्षि नारद का यह उपदेश पूर्ण होने पर युधिष्ठिर ने भलीभाँति उनकी पूजा की; तदनन्तर उन से आज्ञा लेकर उनके प्रश्न का उत्तर दिया। युधिष्ठिर बोले- भगवान् ! आपने जो यह राजधर्म का यथार्थ सिद्धान्त बताया हे, वह सर्वथा न्यायोचित है । मैं आप के इस न्यायानुकूल आदेश का यथाशक्ति पालन करता हूँ। इसमें संदेह नहीं कि प्राचीन काल के राजाओं ने जो कार्य जैसे सम्पन्न किया, वह प्रत्येक न्यायोचित, सकारण और किसी विशेष प्रयोजन से युक्त होता था। प्रभो ! हम भी उन्हीं के उत्तम मार्ग से चलना चाहते हैं, परंतु उस प्रकार (सर्वथा) चल नहीं पाते; जैसे वे नियतात्मा महापुरुष चला करते थे।
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय ! ऐसा कहकर धर्मात्मा युधिष्ठिर ने नारद जी के पूर्वोक्त प्रवचन की बड़ी प्रशंसा की । फिर सम्पूर्ण लोकों में विचरने वाले नारद मुनि जब शान्तिपूर्वक बैठ गये, तब दो घड़ी के बाद ठीक अवसर जान के महातेजस्वी पाण्डु पुत्र राजा युधिष्ठिर भी उन के निकट आ बैठे और सम्पूर्ण राजाओं के बीच वहाँ उन से इस प्रकार पूछने लगे। युधिष्ठिर ने पूछा- मुनिवर ! आप मन के समान वेगशली हैं, अतः ब्रह्मा जी ने पूर्वकाल में जिनका निर्माण किया है, उन अनेक प्रकार के बहुत-से लोकों का दर्शन करते हुए आप उन में सदा बेरोक-टोक विचरते रहते हैं। ब्रह्मन् ! क्या आपने पहले कहीं ऐसी या इससे भी अच्छी कोई सभा देखी है ? मैं जानना चाहता हूँ , अतः आप मुझ से यह बात बतावें।
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय ! धर्मराज युधिष्ठिर का यह प्रश्न सुनकर देवर्षि नारद जी मुस्कराने लगे और उन पाण्डु कुमार को इसका उत्तर देते हुए मधुर वाणी में बोले। नारद जी ने कहा- तात ! भरतवंशी नरेश ! मणि एवं रत्नों की बनी हुई जैसी तुम्हारी यह सभा है, ऐसी सभा मैने मनुष्य लोक में ना तो पहले देखी है और न कानों से ही सुनी है। भरतश्रेष्ठ ! यदि तुम्हारा मन दिव्य सभाओं का वर्णन सुनने को उत्सुक हो तो मैं तुम्हें पितृराज यम, बुद्धिमान् वरूण, स्वर्गवासी इन्द्र, कैलास निवासी कुबेर तथा ब्रह्मा जी की दिव्य सभा का वर्णन सुनाऊँगा, जहाँ किसी प्रकार का क्लेश नहीं है एवं जो दिव्य और अदिव्य भोगों से सम्पन्न तथा संसार के अनेक रूपों से अलंकृत है । वह देवता, पितृगण, साध्यगण, याजक तथा मन को वश में रखने वाले शान्त मुनिगणों से सेवित है । वहाँ उत्तम दक्षिणाओं से युक्त वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान होता है।
नारद जी के ऐसा कहने पर भाइयों तथा सम्पूर्णन श्रेष्ठ ब्राह्मणों के साथ महामनस्वी धर्मराज युधिष्ठिर ने हाथ जोड़कर उनसे इस प्रकार कहा- ‘महर्षे ! हम सभी दिव्य सभाओं का वर्णन सुनना चाहते हैं । आप उनके विषय में सब बातें बताइये। ‘ब्रह्मन् ! उन सभाओं का निर्माण किस द्रव्य से हुआ है ? उनकी लंबाई -चैड़ाई कितनी है ? ब्रह्मा जी की उस दिव्य सभा में कौन-कौन सभा सद् उन्हें चारों ओर से घेरकर बैठते हैं ? ‘इसी प्रकार देवराज इन्द्र, वैवस्वत यम, वरूण तथा कुबेर की सभा में कौन-कौन लोग उनकी उपासना करते हैं ? ‘ब्रह्मर्षे ! हम सब लोग आप के मुख से ये सब बातें यथोचित रीति से सुनना चाहते हैं । हमारे मन में उस के लिये बड़ा कौतूहल है’। पाण्डु कुमार युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर नारद जी ने उत्तम दिया- राजन् ! तुम हम से यहाँ उन सभी दिव्य सभाओं का क्रमशः वर्णन सुनो’।
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