महाभारत शल्य पर्व अध्याय 14 श्लोक 1-26
चतुर्दश (14) अध्याय: शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)
अर्जुन और अश्वत्थामा का युद्ध तथा पांचाल वीर सुरथ का वध
संजय कहते हैं- महाराज ! दूसरी ओर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा तथा उसके पीछे चलने वाले त्रिगर्तदेशीय शूरवीर महारथियों ने अर्जुन को लोहे के बने हुए बहुत से बाणों द्वारा घायल कर दिया । तब अर्जुन ने समरभूमि में तीन बाणों से अश्वत्थामा को और दो-दो बाणों से अन्य महाधनुर्धरों को बींध डाला। महाराज ! भरतश्रेष्ठ ! तत्पश्चात् अर्जुन ने पुनः उन सब को अपने बाणों की वर्षा से आच्छादित कर दिया। अर्जुन के पैंने बाणों की मार खाकर उन बाणों से कण्टकयुक्त होकर भी आपके अर्जुन को छोड़ न सके । समरांगण में द्रोणपुत्र को आगे करके कौरव महारथी अर्जुन को रथसमूह से घेरकर उनके साथ युद्ध करने लगे । राजन् ! उनके चलाये हुए सुवर्णभूषित बाणों से अर्जुन के रथकी बैठक को अनायास ही भर दिया । सम्पूर्ण धनुर्धरों में श्रेष्ठ तथा महाधनुर्धर श्रीकृष्ण और अर्जुन के सम्पूर्ण अंगों को बाणों से व्यथित हुआ देख रणदुर्भद कौरव योद्धा बडे़ प्रसन्न हुए । प्रभो ! अर्जुन के रथ के पहिये, कूबर, ईषादण्ड, लगाम यो जोते, जूआ और अनुकर्ष- ये सब-के-सब उस समय बाण भय हो रहे थे । राजन् ! वहां आपके योद्धाओं ने अर्जुन की जैसी अवस्था कर दी थी, वैसी पहले कभी न तो देखी गयी और न सुनी ही गयी थी । विचित्र पंखवाले पैंने बाणों द्वारा सब ओर से व्याप्त हुआ अर्जुन का रथ भूतलपर सैकड़ों मसालों से प्रकाशित होने वाले विमान के समान शोभा पाता था । महाराज ! तदनन्तर अर्जुन ने झुकी हुई गांठ वाले बाणों द्वारा आपकी उस सेना को उसी प्रकार ढक दिया, जैसे मेघ पानी वर्षा से पर्वत को आच्छादित कर देता है। समरभूमि में अर्जुन के नाम से अंकित बाणों की चोट खाते हुए कौरवसैनिक उन्हें उसी रूप में देखते हुए सब कुछ अर्जुनमय ही मानने लगे । अर्जुनरूपी महान् अग्नि क्रोध से प्रज्वलित हुई बाणमयी ज्वालाएं फैलाकर धनुष की टंकार रूपी वायु से प्रेरित आपके सैन्यरूपी ईधन को शीघ्रतापूर्वक जलाना आरम्भ किया । भारत ! महाभाग ! अर्जुन के रथ के भागों मे धरती पर गिरते हुए रथ के पहियों, जूओं, तरकसों, पताकाओं, ध्वजों, रथों, हरसों, अनुकर्षो, त्रिवेणु नाम काष्ठों, धुरों, रस्सियों, चाबुकों, कुण्डल और पगड़ी धारण करने वाले मस्तकों, भुजाओं, कंधों, छत्रों, व्यजनों और मुकुटों के ढेर-के-ढेर दिखायी देने लगे । प्रजानाथ ! कुपित हुए अर्जुन के रथ के मार्ग की भूमि पर मांस ओर रक्त की कीच जम जाने के कारण वहां चलना-फिरना असम्भव हो गया । भरतश्रेष्ठ ! वह रणभूमि रूद्रदेव के क्रीडास्थल (श्मशान) की भांति कायरों के मन में भय उत्पन्न करने वाली और शूर वीरों का हर्ष बढ़ाने वाली थी । शत्रुओं को संताप देनेवाले पार्थ समरांगण में आवरणसहित दो सहस्त्र रथों का संहार करके धूमरहित प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे । राजन् ! जैसे चराचर जगत् तो दग्ध करके भगवान अग्नि देव धूमरहित देखे जाते हैं, उसी प्रकार कुन्तीकुमार अर्जुन भी देदीप्यमान हो रहे थे । संग्रामभूमि में पाण्डुपुत्र अर्जुन का वह पराक्रम देखकर द्रोणकुमार अश्वत्थामा ने अत्यन्त ऊॅची पताका वाले रथ के द्वारा आकर उन्हें रोका । वे दोनों ही मनुष्यों में व्याघ्र के समान पराक्रमी थे और दोनों ही धनुर्धरों में श्रेष्ठ समझे जाते थे। उस समय परस्पर वध की इच्छा से दोनों ही एक दूसरे के साथ भिड़ गये । महाराज! भरतश्रेष्ठ ! जैसे वर्षा ऋतु में दो मेघखण्ड पानी बरसा रहे हों, उसी प्रकार उन दोनों के बाणों की वहां अत्यन्त भयंकर वर्षा होने लगी। जैसे दो सांड परस्पर सींगों से प्रहार करते हैं, उसी प्रकार आपस में लाग-डांट रखने वाले वे दोनों वीर झुकी हुई गांठ वाले बाणों द्वारा एक-दूसरे को क्षत-विक्षत करने लगे । महाराज ! बहुत देर तक तो उन दोनों का युद्ध एक-सा चलता रहा। फिर उनमें वहां अस्त्र-शस्त्रों का घोर संघर्ष आरम्भ हो गया ।
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