महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 47 श्लोक 1-17
सप्तचतवारिंश (47) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
मुक्ति के साधनों का, देहरूपी वृक्ष का तथा ज्ञान खड्ग से उसे काटने का वर्णन
ब्रह्माजी ने कहा- महर्षियों! निश्चित बात कहने वाले और वेदों के कारण रूप परमात्मा में स्थित वृद्ध ब्राह्मण संन्यास को तप कहते हैं और ज्ञान को ही परब्रह्म का स्वरूप मानते हैं। वह वेदिविद्या का आधार ब्रह्म (अज्ञानियों के लिये) अत्यन्त दूर है। वह निर्द्वन्द्व, निर्गुण, नितय, अचिन्त्य गुणों से युक्त और सर्वश्रेष्ठ है। धीर पुरुष ज्ञान ओर तपस्या के द्वारा उस परमात्मा का साक्षात्कार करते हैं। जिनके मन की मैल धुल गयी है, जो परम पवित्र हैं, जिन्होंने रजोगुण को त्याग दिया है, जिनका अन्त:करण निर्मल है, जो नित्य संन्यास परायण तथा ब्रह्म के ज्ञाता हैं, वे पुरुष तपस्या के द्वारा कल्याणमय पथ का आश्रय लेकर परमेश्वर को प्राप्त होते हैं। ज्ञानी पुरुषों का कहना है कि तपस्या (परमात्म तत्त्व को प्रकाशित करने वाला) दीपक है, आचार धर्म का साधक है, ज्ञान परब्रह्म का स्वरूप है और संन्यास ही उत्तम तप है। जो तत्त्व का पूर्ण निश्चय करके ज्ञान स्वरूप निराधार और सम्पूर्ण प्राणियों के भीतर रहने वाले आत्मा को जान लेता है, वह सर्वव्यापक हो जाता है। जो विद्वान् संयोग को भी वियोग के रूप में ही देखता है तथा वैसे ही नानात्व में एकत्व देखता है, वह दु:ख से सर्र्वथा मुक्त हो जाता है। जो किसी वस्तु की कामना तथा किसी की अवहेलना नहीं करता, वह इस लोक में रहकर भी ब्रह्मस्व रूप होने में समर्थ हो जाता है। जो सब भूतों में प्रधान- प्रकृति को तथा उसके गुण एवं तत्त्व को भली भाँति जानकर ममता और अहंकार से रहित हो जाता है, उसके मुक्त होने में संदेह नहीं है। जो द्वन्द्वां से रहित, नमस्कार की इच्छा न रखने वाला और स्वधाकार (पितृ कार्य) न करने वाला संन्यासी है, वह अतिशय शान्ति के द्वारा ही निर्गुण, द्वन्द्वातीत, नित्य तत्व को प्राप्त कर लेता है। शुभ और अशुभ समस्त त्रिगुणात्मक कर्मों का तथा सत्य और असत्य- इन दोनों का भी त्याग करके संन्यासी मुक्त हो जाता है, इसमं संशय नहीं है। यह देह एक वृक्ष के समान है। अज्ञान इसका मूल (जड़) है, बुद्धि स्कन्ध (तना) है, अहंकार शाखा है, इन्द्रियाँ अंकुर और खोखले हैं तथा पंचमहाभूत इसको विशाल बनाने वाले हैं और इस वृक्ष की शोभा बढ़ाते हैं। इसमें सदा ही संकल्परूपी पत्ते उगते और कर्मरूपी फूल खिलते रहते हैं। शुभाशुभ कर्मों से प्राप्त होने वाले सुख दु:खादि ही इसमें सदा लगे रहने वाले फल हैं। इस प्रकार ब्रह्मरूपी बीज से प्रकट होकर प्रवाह रूप से सदा मौजूद रहने वाला यह देहरूपी वृख समस्त प्राणियों की जीवन का आधार है। बुद्धिमान पुरुष तत्त्वज्ञान रूपी खड्ग से इस वृक्ष को छिन्न भिन्न कर जब जन्म मृत्यु और जरावस्था के चक्कर में डालने वाले आसक्ति रूप बन्धनों को तोड़ा डालता है तथा ममता और अहंकार से रहित हो जाता है, उस समय उसे अवश्य मुक्ति प्राप्त होती है, इसमें संशय नहीं है। इस वृक्ष पर रहने वाले (मन बुद्धिरूप) दो पक्षी हैं, जो नित्य क्रियाशील होने पर भी अचेतन हैं। इन दोनों से श्रेष्ठ अन्य (आत्मा) है, वह ज्ञान सम्पन्न कहा जाता है। संख्या से रहित जो सत्त्व अर्थात मूल प्रकृति है, वह अचेतन है। उससे भिन्न जो जीवात्मा है, उसे अन्तर्यामी परमात्मा ज्ञान सम्पन्न करता है। वही क्षेत्र को जानने वाला जब सम्पूर्ण तत्त्वों को जान लेता है, तब गुणातीत हाकर सब पापों से छूट जाता है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व में गरु शिरू संवादविषयक सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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