महाभारत अादि पर्व अध्याय 1 श्लोक 59-78

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प्रथम (1) अध्‍याय: आदि पर्व (अनुक्रमणिका पर्व)

महाभारत: अादि पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 59-78 का हिन्दी अनुवाद

व्‍यास जी ब्रह्मा जी को देखकर आश्‍चर्यचकित रह गये। उन्‍होनें हाथ जोड़कर प्रणाम किया और खड़ रहे। फिर सावधान होकर सब ऋषि मुनियों के साथ उन्‍होंने ब्रह्मा जी के लिये आसन की व्‍यवस्‍था की। जब उस श्रेष्‍ठ आसन पर ब्रह्मा जी विराज गये, तब व्‍यास जी ने उनकी परिक्रमा की और ब्रह्माजी के आसन के समीप ही विनयपूर्वक खड़े हो गये।

इस ग्रन्‍थ में इतिहास और पुराणों का मन्थन करके उनका प्रशस्‍त रूप प्रकट किया गया है। भूत, वर्तमान और भविष्‍यकाल की इन तीनों संज्ञाओं का भी वर्णन हुआ है। इस ग्रन्‍थ में बुढ़ापा, मृत्‍यु, भय, रोग और पदार्थो के सत्‍यत्‍व और मिथ्‍यात्‍मक का विशेष रूप से निश्‍चय किया गया है तथा अधिकारी-भेद से भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार के धर्मो एवं आश्रमों का भी लक्षण बताया गया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍य और शूद्र इन चारों वर्णों के कर्तव्‍य का विधान, पुराणों का सम्‍पूर्ण मूलतत्‍व भी प्रकट हुआ है। तपस्‍या एवं ब्रह्मचर्य के स्‍वरूप, अनुष्‍ठान एवं फलों का विवरण, पृथ्‍वी, चन्‍द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा, सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग-इन सबके परिमाण और प्रमाण, ऋग्‍वेद, यजुर्वेद, सामवेद और इनके आध्‍यात्मिक अभिप्राय और अध्‍यात्‍म शास्‍त्र का इस ग्रन्‍थ में विस्‍तार से वर्णन किया गया है। न्‍याय, शिक्षा, चिकित्‍सा, दान तथा पाशुपत (अन्‍तर्यामी की महिमा) का भी इसमें विशद निरूपण है। साथ ही यह भी बतलाया गया है कि देवता, मनुष्‍य आदि भिन्‍न-भिन्‍न योनियों में जन्‍म का कारण क्‍या है? लोकपावन तीर्थों, देशों, नदियों, पर्वतों, वनों और समुद्र का भी इसमें वर्णन किया गया है। दिव्‍य नगर एवं दुर्गों के निर्माण का कौशल तथा युद्ध की निपुणता का भी वर्णन है। भिन्‍न-भिन्‍न भाषाओं और जातियों की जो विशेषताएँ है, लोक व्‍यवहार की सिद्धि के लिये जो कुछ आवश्‍यक है तथा और भी जितने लोकोपयोगी है; परन्‍तु मुझे इस बात की चिन्‍ता है कि पृथ्‍वी में इस ग्रन्‍थ को लिख सके ऐसा कोई नहीं है। ब्रह्माजी ने कहा– व्‍यास जी ! संसार में विशिष्‍ट तपस्‍या और विशिष्‍ट कुल के कारण जितने भी श्रेष्‍ठ ऋषि-मुनि हैं, उनमें मैं तुम्‍हें सर्वश्रेष्‍ठ समझता हूँ; क्‍योंकि तुम्हें जगत, जीव और ईश्‍वर-तत्‍व का जो ज्ञान है, उसके ज्ञाता हो। मैं जानता हूँ कि आजीवन तुम्‍हारी ब्रह्मवादिनी वाणी सत्‍य भाषण करती रही है और तुमने अपनी रचना को काव्‍य कहा है, इसलिये अब यह काव्‍य के नाम से ही प्रसिद्ध होगी।

संसार के बड़े से बड़े कवि भी इस काव्य से बढ़कर कोई रचना नहीं कर सकेंगे। ठीक वैसे ही, जैसे ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और सन्यास तीनों आश्रम अपनी विशेषताओं द्वारा गृहस्थ आश्रम से आगे नहीं बढ़ सकते। मुनिवर! अपने काव्य को लिखवाने के लिये तुम गणेश जी का स्मरण करो। उग्रश्रवा जी कहते हैं- महात्माओं! ब्रह्मा जी व्यास जी से इस प्रकार सम्भाषण करके अपने धाम ब्रह्मलोक में चले गये। निष्पाप शौनक ! तदनन्तर सत्यवतीनन्दन व्यास जी ने भगवान गणेश का स्मरण किया और स्मरण करते ही भक्तम वञ्छाकल्पततरूविध्नेनश्र्वर श्रीगणेश जी महाराज वहाँ आये, जहाँ व्यास जी विद्यमान थे। व्या‍स जी ने गणेश जी का बड़े आदर और प्रेम से स्वागत सत्कार किया और वे जब बैठ गये, तब उनसे कहा- गणनायक ! आप मेरे द्वारा निर्मित इस महाभारत ग्रन्थ के लेखक बन जाइये; मैं बोलकर लिखाता जाऊँगा, मैंने मन ही मन इसकी रचना कर ली है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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