महाभारत आदि पर्व अध्याय 41 श्लोक 23-33
एकचत्वारिंश (41) अध्याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
पुत्र ! हम राजा के बिना सुखपूर्वक धर्म का अनुष्ठान नहीं कर सकते। तात ! धर्म पर दृष्टि रखने वाले राजाओं के द्वारा सुरक्षित होकर हम अधिक से अधिक धर्म का आचरण कर पाते हैं। अतः हमारे पुण्यकर्मों में धर्मतः उनका भी भाग है। इसलिये वर्तमान राजा परीक्षित के अपराध को तो क्षमा ही कर देना चाहिये। परीक्षित तो विशेष रूप से अपने पितामह युधिष्ठिर आदि की भाँति हमारी रक्षा करते हैं। शक्तिशाली पुत्र ! प्रत्येक राजा को इस प्रकार प्रजा की रक्षा करनी चाहिये। वे आज भूखे और थके-मांदे यहाँ आये थे। तपस्वी नरेश मेरे इस मौनव्रत को नहीं जानते थे; मैं समझता हूँ, इसीलिये उन्होंने मेरे साथ ऐसा बर्ताव कर दिया। जिस देश में राजा न हो वहाँ अनेक प्रकार के दोष (चोर आदि के भय) पैंदा होते हैं। धर्म की मर्यादा त्यागकर उच्छृडंखल बने हुए लोगों को राजा अपने दण्ड के द्वारा शिक्षा देता है। दण्ड से भय होता है, फिर भय से तत्काल शान्ति स्थापित होती है। जो चोर आदि के भय से उद्विग्न है, वह धर्म का अनुष्ठान नहीं कर सकता है। वह उद्विग्न पुरुष यज्ञ, श्राद्व आदि शास्त्रीय कर्म का आचरण भी नहीं कर सकता। राजा से धर्म की स्थापना होती है और धर्म से स्वर्गलोक की प्रतिष्ठा (प्राप्ति) होती है। राजा से सम्पूर्ण यज्ञ कर्म प्रतिष्ठित होते हैं और यज्ञ से देवताओं की प्रतिष्ठा होती है। देवता के प्रसन्न होने से वर्षा होती है, वर्षा से अन्न पैदा होता है और अन्न से निरन्तर मनुष्यों के हित का पोषण करते हुए राज्य का पालन करने वाला राजा मनुष्यों के लिये विधाता (भरण-पोषण करने वाला) है। राजा दस श्रोत्रिय के समान है, ऐसा मनुजी ने कहा है। वे तपस्वी राजा यहाँ भूखे-प्यासे ओर थके-मांदे आये थे। उन्हें मेरे इस मौनव्रत का पता नहीं था, इसलिये मेरे न बोलने से रुष्ट होकर उन्होंने ऐसा किया है। तुमने मूर्खतावश बना विचारे क्यों यह दुष्कर्म कर डाला? बेटा ! राजा हम लोगों से शाप पाने योग्य नहीं हैं।
« पीछे | आगे » |