महाभारत आदि पर्व अध्याय 47 श्लोक 21-43
सप्तचत्वारिंश (47) अध्याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
‘भगवन् ! आप संयम पूर्वक आचमन करके संध्योपासन कीजिये। अब अग्निहोत्र की बेला हो रही है। यह मुहूर्त धर्म का साधन होने के कारण अत्यन्त रमणीय जान पड़ता है। इसमें भूमि आदि प्राणी विचरते हैं, अतः भयंकर भी है। प्रमो ! पश्चिम दिशा में संध्या प्रकट हो रही है—उधर का आकाश लाल हो रहा है।' नागकन्या के ऐसा कहने पर महातपस्वी भगवान जरत्कारू जाग उठे। उस समय क्रोध के मारे उनके होंठ काँपने लगे। वे इस प्रकार बोले— ‘नागकन्ये ! तूने मेरा यह अपमान किया है। ‘इसलिये अब मैं तेरे पास नहीं रहूँगा। जैसे आया हूँ, वैसे ही चला जाऊँगा। वामोरू ! सूर्य में इतनी शक्ति नहीं है कि मैं सोता रहूँ और वे अस्त हो जायें। यह मेरे हृदय में निश्चय है। जिसका कहीं अपमान हो जाये ऐसे किसी भी पुरुष को वहाँ रहना अच्छा नहीं लगता। फिर मेरी अथवा मेरे जैसे दूसरे धर्मशील पुरुष की तो बात ही क्या है।' जब पति ने इस प्रकार हृदय में कँप- कँपी पैदा करने वाली बात कही, तब उस घर में स्थित वासुकि की बहिन इस प्रकार बोली—‘विप्रवर ! मैंने अपमान करने के लिये आपको नहीं जगाया था। आपके धर्म का लोप न हो जाये, यही ध्यान में रखकर मैंने ऐसा किया है।’ यह सुनकर क्रोध में भरे हुए महातपस्वी ऋषि जरत्कारू ने अपनी पत्नी नाग कन्या को त्याग देने की इच्छा रखकर उससे कहा—‘नागकन्ये ! मैंने कभी झूठी बात मुँह से नहीं निकाली है, अतः मैं अवश्य जाऊँगा।' ‘मैंने तुम्हारे साथ आपस में पहले ही ऐसी शर्त कर ली थी। भाई से कहना—‘भगवान जरत्कारू चले गये।' शुभे ! भीरू ! मेरे निकल जाने पर तुम्हें भी शोक नहीं करना चाहिये।' उनके ऐसा कहने पर अनिन्द्य सुन्दरी जरत्कारू भाई के कार्य की चिन्ता और पति के वियोगजनित शोक में डूब गयी। उसका मुँह सूख गया, नेत्रों में आँसू छलक आये और हृदय काँपने लगा। फिर किसी प्रकार धैर्य धारण करके सुन्दर जाँघों और मनोहर शरीर वाली वह नागकन्या हाथ जोड़ गदगद वाणी में जरत्कारू मुनि से बोली—‘धर्मज्ञ ! आप सदा धर्म में स्थित रहने वाले हैं। मैं भी पत्नी धर्म में स्थित तथा आप प्रियतम के हित में लगी रहने वाली हूँ। आपको मुझ निरपराध अबला का त्याग नहीं करना चाहिये। द्विजश्रेष्ठ ! मेरे भाई ने जिस उद्देश्य को लेकर आपके साथ मेरा विवाह किया था, मैं मन्दभागिनी अब तक उसे पा न सकी। नागराज वासुकि मुझसे क्या कहेंगे? साधुशिरोमणे ! मेरे कुटुम्बीजन माता के शाप से दबे हुए हैं। उन्होंने मेरे द्वारा आपसे एक संतान की प्राप्ति अभीष्ट थी, किंतु उसका भी अब तक दर्शन नहीं हुआ। आपसे पुत्र की प्राप्ति हो जाये तो उसके द्वारा मेरे जातिभाइयों का कल्याण हो सकता है। ‘ब्रह्मन ! आपसे जो मेरा सम्बन्ध हुआ, वह व्यर्थ नहीं जाना चाहिये। भगवन ! अपने बान्धवजनों का हित चाहती हुई मैं आपसे प्रसन्न होने की प्रार्थना करती हूँ। ‘महाभाग ! आपने जो गर्भ स्थापित किया है, उसका स्वरूप या लक्षण अभी प्रकट नहीं हुआ। महात्मा होकर ऐसी दशा में मुझ निरपराध पत्नी को त्यागकर कैसे जाना चाहते हैं?’ यह सुनकर उन तपोधन महर्षि ने अपनी पत्नी जरत्कारू से उचित तथा अवसर के अनुसार बात कही—सुभगे !‘अयं अस्ति’—तुम्हारे उदर में गर्भ है। तुम्हारा यह गर्भस्थ बालक अग्नि के समान तेजस्वी, परम धर्मात्मा मुनि तथा वेद-वेदांगों में पारंगत विद्वान् होगा।' ऐसा कहकर धर्मात्मा महामुनि जरत्कारू, जिन्होंने जाने का दृढ़ निश्चय कर लिया था, फिर कठोर तपस्या के लिये वन में चले गये।।43।।
« पीछे | आगे » |