महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 29 श्लोक 21-40

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एकोनत्रिंश (29) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (पुत्रदर्शन पर्व)

महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 21-40 का हिन्दी अनुवाद

‘महाप्राज्ञ नरेश ! बोलो, मैं तुम्हें कौन-सा अभीष्ट मनोरथ प्रदान करूँ ? आज मैं तुम्हें मनोवान्छित वर देने को तैयार हूँ । तुम मेरी तपस्या का फल देखो’। अमित बुद्धिमान महर्षि व्यास के ऐसा कहने पर महाराज धृतराष्ट्र ने दो घड़ी तक विचार करके इस प्रकार कहना आरम्भ किया। ‘भगवान  ! आज मैं धन्य हूँ , आप लोगों की कृपा का पात्र हूँ तथा मेरा यह जीवन भी सफल है; क्योंकि आज यहाँ आप-जैसे साधु-महात्माओं का समागम मुझे प्राप्त हुआ है। ‘तपोधनो ! आप ब्रह्मतुल्य महात्माओं का जो संग मुझे प्राप्त हुआ उससे मैं समझता हूँ कि यहाँ अपने लिये अभीष्ट गति मुझे प्राप्त हो गयी। ‘इस में संदेह नहीं कि मैं आप लोगों के दर्शन मात्र से पवित्र हो गया । निष्पाप महर्षियो ! अब मुझे परलोक से कोई भय नहीं है। ‘परन्तु अत्यन्त खोटी बुद्धिवाले उस मन्दमति दुर्योधन के अन्यायों से जो मेरे सारे पुत्र मारे गये हैं, उन्हें पुत्रों में आसक्त रहने वाला मैं सदा याद करता हूँ; इसलिये मेरे मन से बड़ा दुःख होता है। पापपूर्ण विचार रखने वाले उस दुर्योधन ने निरपराध पाण्डवों को सताया तथा घोड़ों, मनुष्यों और हाथियों सहित इस सारी पृथ्वी के वीरों का विनाश करा डाला । अनेक देशों के स्वामी महामनस्वी नरेश मेरे पुत्र की सहायता के लिये आकर सब-के-सब मृत्यु के अधीन हो गये। वे सब शुरवीर भूपाल अपने पिताओं, पत्नियों, प्राणों और मन को प्रिय लगने वाले भोगों का परित्याग करके यमलोक को चले गये। ‘ब्राह्मन् ! जो मित्र के लिये युद्ध में मारे गये उन राजाओं की क्या गति हुई होगी ? तथा जो रणभूमि में वीर गति को प्राप्त हुए हैं, उन मेरे पुत्रों और पौत्रों को किस गति की प्राप्ति हुई होगी ? ‘महाबली शान्तनुनन्दन भीष्म तथा वृद्ध ब्राह्मणप्रवर द्रोणाचार्य का वध कराकर मेरे मन को बारंबार दुःसह संताप प्राप्त होता है। ‘अपवित्र बुद्धि वाले मेरे पापी एवं मूर्ख पुत्र ने समस्त भूमण्डल के राज्य का लोभ करके अपने दीप्तिमान् कुल का विनाश कर डाला । ‘ये सारी बातें याद करके मैं दिन-रात जलता रहता हूँ । दुःख और शोक से पीड़ित होने के कारण मुझे शान्ति नहीं मिलती है । पिता जी ! इन्हीं चिन्ताओं में पड़े-पड़े मुझे कभी शान्ति नहीं प्राप्त होती’। वैशम्‍पायनजी कहते हैं –जनमेजय ! राजर्षि धृतराष्ट्र का वह भाँति-भाँति से विलाप सुनकर गान्धारी का शोक फिर से नया-सा हो गया। कुन्ती, दौपदी, सुभद्रा तथा कुरूराज की उन सुन्दरी बहुओं का शोक भी फिर से उमड़ आया। आँखों परपट्टी बाँधे गान्धारी देवी श्वशुर के सामने हाथ जोड़कर खड़ी हो गयीं और पुत्रशोक से संतप्त होकर इस प्रकार बोलीं। मुनिवर ! प्रभो ! इन महाराज को अपने मरे हुए पुत्रों के शोक करते आज सोलह वर्ष बीत गये; किंतु अब तक इन्हें शान्ति नहीं मिली।‘महामुने ! ये भूमिपाल धृतराष्ट्र पुत्र शोक से संतप्त हो सदा लम्बी साँस खींचते आौर आहें भरते रहते हैं । इन्हें रात भर कभी नींद नहीं आती। ‘आप अपने तपोबल सेइन सब लोकों की दूसरी सृष्टि करने में समर्थ हैं, फिर लोकान्तर में गये हुए पुत्रों को एक बार राजा से मिला देना आप के लिये कौन बड़ी बात है ?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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