महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 17 श्लोक 36-42

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें

सप्तदश (17) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: सप्तदश अध्याय:: श्लोक 36-42 का हिन्दी अनुवाद

यहीं पाप करने वाले मानव अपने कर्मों के अनुसार नरक में पड़ेते हैं। यह जीव की अधोगति है जो घोर कष्ट देने वाली है। इसमें पड़कर पापी मनुष्य नरकाग्रि में पकाये जाते हैं। उससे छुटकारा मिलना बहुत कठिन है। अत: (पापकर्म से दर रहकर) अपने को नकर से बचाये रखने का विशेष प्रयत्न करना चाहिये। स्वर्ग आदि ऊर्ध्वलोकों में जाकर प्राणी जिन स्थानों में निवास करते हैं, उनका यहाँ वर्णन किया जाता है, इस विषय को यथार्थ रूप से मुझ से सुनो। इसको सुनने से तुम्हें कर्मों की गति का निश्चय हो जायगा और नैष्ठि की बुद्धि प्राप्त होगी। जहाँ ये समस्त तारे हैं, जहाँ वह चन्द्रमण्डल प्रकाशित होता है और जहाँ सूर्यमण्डल जगत् में अपनी प्रभा से उद्भासित हो रहा है, ये सब-के-सब पुण्यकर्म पुरुषों के स्थान हैं, ऐसा जाना (पुण्यात्मा मनुष्य उन्हीं लोकों में जाकर अपने पुणयों का फल भोगते हैं)। जब जीवों के पुण्यकर्मों का भोग समाप्त हो जाता है, तब वे वहाँ से नीचे गिरते हैं। इस प्रकार बारंबार उनका आवागमन होता रहता है। स्वर्ग में भी उत्तम, मध्यम और अधम का भेद रहता है। वहाँ भी दूसरों का अपने से बहुत अधिक दीप्तिमान् तेज एवं ऐश्वर्य देखकर मन में संतोष नहीं होता है। इस प्रकार जीव की इन सभी गतियों का मैंने तुम्हारे समक्ष पृथक-पृथक् वर्णन किया है। अब मैं यह बतलाऊँगा कि जीव किस प्रकार गर्भ में आकर जन्म धारण करता है। ब्रह्मन्! तुम एकाग्रचित होकर मेरे मुख से इस विषय का वर्णन सुनो।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।





« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख