महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 35 श्लोक 34-50
पंचत्रिंश (35) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
ब्रह्म सत्य हे, तप सत्य है और प्रजापति भी सत्य है। सत्य से ही सम्पूर्ण भूतों का जन्म हुआ है। यह भौतिक जगत् सत्य रूप ही है।
इसलिये सदा योग में लगे रहने वाले, क्रोध और संताप से दूर रहने वाले तथा नियमों का पालन करने वाले धर्म सेवी ब्राह्मण सत्य का आश्रय लेते हैं।
जो परस्पर एक दूसरे को नियम के अंदर रखने वाले, धर्म मर्यादा के प्रवर्तक और विद्वान् हैं, उन ब्राह्मणों के प्रति मैं लोक कल्याणकारी सनातन धर्मों का उपदेश करूँगा।
वैस ही प्रत्येक वर्ण और आश्रम के लिये पृथक-पृथक् चार विद्याओं का वर्णन करूँगा। मनीषी विद्वान् चार चरणों वाले एक धर्म को नित्य बतलाते हैं।
द्विजवरो! पूर्व काल में मनीषी पुरुष जिसका सहारा ले चुके हैं और जो ब्रह्मभाव की प्राप्ति का सुनिश्चित साधन है, उस परम मंगलकारी कल्याणमय मार्ग का तुम लोगों के प्रति उपदेश करता हूँ, उसे ध्यान देकर सुनो।
सौभाग्यशाली प्रवक्तागण! उस अत्यन्त दुर्विज्ञेय मार्ग को, जो कि पूर्णतया परमपद स्वरूप है, यहाँ अब मुझ से सुनो।
आश्रमों में ब्रह्मचर्य को प्रथम आश्रम बताया गया है। गार्हस्थ्य दूसरा और वानप्रस्थ तीसरा आश्रम है, उसके बार संन्यास आश्रम है। इसमें आत्मज्ञान की प्रधानता होती है, अत: इसे परमपद स्वरूप समझना चाहिये।
जब तक अध्यात्म ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती, तब तक मनुष्य इन ज्योति, आकाश, वायु, सूर्य, इन्द्र और प्रजापति आदि के यथार्थ तत्व को नहीं जानता (आत्मज्ञान होने पर इनका यथार्थ ज्ञान हो जाता है)।
अत: पहले उस आत्मज्ञान का उपाय बतलाता हूँ, सब लोग सुनिये। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- इन तीन द्विजातियों के लिये वानप्रस्थ आश्रम का विधान है। वन में रहकर मुनिवृत्ति का सेवन करते हुए फल-फूल और वायु के आहार पर जीवन निर्वाह करने से वानप्रस्थ धर्म का पालन होता है। गृहस्थ आश्रम का विधान सभी वर्णों के लिये है।
विद्वानों ने श्रद्धा को ही धर्म का मुख्य लक्षण बतलाया है। इस प्रकार आप लोगों के प्रति देवयान मार्गों का वर्णन किया गया है। धैर्यवान् संत महात्मा अपने कर्मों से धर्म मर्यादा का पालन करते हैं।
धर्मों में से किसी का भी दृढ़ता पूर्वक पालन करते हैं, वे कालक्रम से सम्पूर्ण प्राणियों के जन्म और मरण को सदा ही प्रत्यक्ष देखते हैं।
अब मैं यथार्थ युक्ति के द्वारा पदार्थों में विभाग पूर्वक रहने वाले सम्पूर्ण तत्त्वों का वर्णन करता हूँ।
अव्यक्त प्रकृति, महत्तत्व, अहंकार, दस इन्द्रियाँ, एव मन, पंच महाभूत और उनके शब्द आदि विशेष गुण यह चौबीस तत्त्वों का सनातन सर्ग है। तथा एक जीवात्मा इस प्रकार तत्त्वों की संख्या पचीस बतलायी गयी है।
जो इन सब तत्त्वों की उत्पत्ति और लय को ठीक-ठीक जानता है, वह सम्पूर्ण प्राणियों में धीर है और वह कभी मोह में नहीं पड़ता।
जो सम्पूर्ण तत्त्वों, गणों तथा समस्त देवताओं को यथार्थ रूप से जानता है, उसके पाप धुल जाते हैं और वह बन्धन से मुक्त होकर सम्पूर्ण दिव्यलोकों के सुख का अनुभव करता है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आवश्मेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में गरु-शिष्य संवादविषयक पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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