महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 42 श्लोक 58-63
द्विचत्वारिंश (42) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
जिसमें पाँच इन्द्रिय रूपी बड़े कगारे हैं, जो मनोवेग रूपी महान् जलराशि से भरी हुई है और जिसके भीतर मोहमय कुण्ड है, उस देहरूपी नदी को लाँघकर जो काम और क्रोध- दोनों को जीत लेता है, वही सब दोषों से युक्त होकर पर ब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार करता है।
जो मन को हृदय कमल में स्थापित करके अपने भीतर ही ध्यार के द्वारा आत्मदर्शन का प्रयत्न करता है, वह सम्पूर्ण भूतों में सर्वज्ञ होता है और उसे अन्त:करण में परमात्म तत्व का अनुभव हो जाता है।
जैसे एक दीप से सैकड़ों दीप जला लिये जाते हैं, उसी प्रकार एक ही परमात्मा यत्र-तत्र अनेक रूपों में उपलब्ध होता है। ऐसा निश्चय करके ज्ञानी पुरुष नि:सन्देह सब रूपों को एक से ही उत्पन्न देखता है।
वास्तव में वही परमात्मा विष्णु, मित्र, वरुण, अग्नि, प्रजापति, धाता, विधाता, प्रभु, सर्वव्यापी, सम्पूर्ण प्राणियों का हृदय तथा महान् आत्मा के रूप में प्रकाशित है।
ब्राह्मण समुदाय, देवता, असुर, यक्ष, पिशाच, पितर, पक्षी, राक्षस, भूत और सम्पूर्ण महर्षि भी सदा उस परमात्मा की स्तुति करते हैं।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व में गुरु शिष्य संवादविषयक बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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