महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 7 श्लोक 21-39

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सप्तम (7) अध्‍याय: उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: सप्तम अध्याय: श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद

वैशम्पायनजी कहते है--राजन ! श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर कुन्तीकुमार धंनजयने संग्राम भूमि में युद्ध न करने वाले उन भगवान श्रीकृष्ण को ही ( अपना सहायक ) चुना, जो साक्षात् शत्रुहन्ता नारायण है अजन्मा होते हुए भी स्वेच्छा से देवता, दानव तथा समस्त क्षत्रियों के सम्मुख मनुष्यों अवतीर्ण हुए है। जनमेजय ! तब दुर्योधन वह सारी सेना माँग ली, जो अनेक सह्स्त्र टोलियों में संगठित थी । उन योद्धाओं को पाकर और श्रीकृष्ण को ठगा गया समझकर राजा दुर्योधन बड़ी प्रसन्नता हुई। उसका बल भयंकर था । वह सारी सेनो लेकर महाबली राहिणी नन्दन बलरामजी के पास गया और उसने उन्हें अपने आने का सरा कारण बताया। तब शूरवंशी बलरामजी धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन को इस प्रकार उत्‍तर दिया।

बलदेवजी बोले-पुरुषसिंह ! पहले राजा विराट के यहाँ विवाहोत्सव के अवसर पर मैने जो कुछ कहा था, वह सब तुम्हे माळूम हो गया होगा। कुरूनन्दन ! तुम्हारे लिये मैने श्रीकृष्ण को बाध्य करके कहा था कि हमारे साथ दोनों पक्षो का समान रूप से सम्बन्ध है ! राजन् ! मैने यह बात बार-बार दुहरायी, परंतु श्रीकृष्ण-को जँची नहीं और मै श्रीकृष्ण को छोड़कर एक छड़ भी अन्यत्र कहीं ठहर नहीं सकता। अतः मै श्रीकृष्ण की ओर देखकर म नहीं मन इस निश्चय पर पहुँचा हूँ कि मै न तो अर्जुन की सहायता करूँगा और न दुर्योधन की ही। पुरुषत्न ! तुम समस्त राजाओंद्वारा सम्मानित भरत वंश में उत्पन्न हुए हो । जाओ, क्षत्रिय-धर्म के अनुसार युद्ध करो।

वैशम्पायनजी कहते है--जनमेजय ! बलभद्र जी के ऐसा कहने पर दुर्योधन उन्हें हृदय और श्रीकृष्ण को ठगा गया जानकर युद्ध से अपनी निश्चित विजय समझ ली। तदन्र धृतराष्ट्र राजा दुर्योधन कृतवर्मा के पास गया कृतवर्मा नें एक उसे अक्षोहिणी सेना दी। उस सारी भंयकर सेना के द्वारा घिरा हुआ कुरूनन्दन दुर्योधन अपने सुहृदो का हर्ष बढ़ता हुआ बड़ी प्रसन्नता के साथ हस्तिनापुर को लौट गया। दुर्योधन चले जाने पर पीताम्बरी जगत्स्रष्टा जर्नादन

श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा--भवार्थ ! मै तो युद्ध करूँगा नहीं; फिर तुमने क्या सोच-समझकर मुझे चुना है।

अर्जुन वोले-भगवन ! आप अकेले ही उन सबको नष्ट करने समर्थ है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है । पुरुषोंम ! (आपकी ही कृपा से) मै भी अकेला ही उन सब शत्रुओं क संघार करने में समर्थ हूँ। परंतु आप संसारो में यशस्वी हैं । आप जहाँ भी रहेगे, यह यश आपका ही अनुसरण करेगा। मुझे भी यश की इच्छा है ही, इसीलिये मैने आपका वरण किय है। मेरे मन में बहुत दिनों से वह अभिलाषा थी कि आपको अपना सारथि बनाऊँ अपने जीवन भर की बागडोर आपके हाथों सौप दूँ । मेरी इसचिरकालिक अभिलाषाको आप पूर्ण करे। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-पार्थ ! तुम जो ( शत्रुओ- पर विजय पाने में ) मेरे साथ स्पर्धा रखते हो, तुम्हारे लिये ठीक ही है । तुम्हारा सारध्य करूँगा । तुम्हारा यह मनोरथ पूर्ण हो।

वैशम्पायनजी कहते है--जनमेजय ! इस प्रकार ( अपनी इच्छा पूर्ण होने से ) प्रसन्न हुए अर्जुन श्रीकृष्ण के सहित मुख्य-मुख्य दशार्हवंशी यादवों से घिरे हुए पुनः युधिष्ठिर के पास आये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योग पर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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