महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 33 श्लोक 37-57

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त्रयस्त्रिंश (33 ) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: त्रयस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 37-57 त्रयस्त्रिंश का हिन्दी अनुवाद

शत्रुदमन नरेश्वर ! जब देवराज इन्द्र ब्रह्माजी का वर पाये हुए उन अभेद्य पुरों का भेदन न कर सके,तब वे भयभीत हो उन पुरों को छोड़कर उन्हीं देवताओं के साथ ब्रह्माजी के पास उन दैत्यों का अत्याचार बताने के लिये गये। उन्होंने मस्तक झुकाकर ब्रह्माजीको प्रणाम किया और सारी बातें ठीक-ठीक बताकर उनसे उन दैत्यों के वध का उपाय पूछा। वह सब सुनकर भगनान् ब्रह्मा ने उन देवताओं से इस प्रकार कहा- ‘देवगण ! जो तुम्हारी बुराई करता है,वह मेरा भी अपराधी है। ‘वे समस्त देवद्रोही दुरात्मा असुर,जो सदा तुम्हें पीड़ा देते रहते हैं,निश्चय ही मेरा भी महान् अपराध करते हैं। ‘इसमें संशय नहीं कि समसत प्राणियों के प्रति मेरा समान भाव है,तथापि मेेंने यह व्रत ले रखा है कि पापात्माओं का वध कर दिया जाय। ‘वे तीनों पुर एक ही बाण से बेध दिये जायँ तो नष्ट हो सकते हैं,अन्यथा नहीं,परंतु महादेवजी के सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं है,जो उन तीनों को एक साथ एक ही बाण से बेध सके। ‘अतः अदितिकुमारों ! तुम लोग अनायास ही महान् कर्म करने वाले ? विजयशील,ईश्वर,महादेवजी का योद्धा के रूप में वरण करो। वे ही उन दैत्यों को मार सकते हैं। उनकी यह बात सुनकर इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता ब्रह्माजी को आगे करके महादेव जी की यारण में गये। तप और नियम का आश्रय ले ऋषियों सहित धर्मज्ञ देवता सनातन ब्रह्म स्वरूप महादेवजी की स्तुति करते हुए सम्पूर्ण हृदय से उनकी शरण में गये। नरेश्वर ! जिन्होंने आत्मस्वरूप से सबको व्याप्त कर रखा हैतथा जो भय के अवसरों पर अभय प्रदान करने वाले हैं,उन सर्वात्मा,महात्मा भगवान शिव की उन देवताओं ने अभीष्ट वाणी द्वारा स्तुति की। जो नाना प्रकार की विशेष तपस्याओं द्वारा मन की सम्पूर्ण वृत्तियों के निरोध का उपाय जानते हैं,जिन्हें अपनी ज्ञानस्वरूपता का बोध नित्य बना रहता है,जिनका अन्तःकरण सदा अपने वश में रहता है,जगत् में जिनकी कहीं भी तुलना नहीं है, निष्पाप,तेजोराशि,महैश्वर भगवान उमापति का उन देवताओं ने दर्शन किया। उन्होंने एक ही भगवान शिव को अपनी भावना के अनुसार अनेक रूपों में कल्पित किया। उन परमात्मा में अपने तथा दूसरों के प्रतिबिम्ब देखें। यह सब देखकर परस्पर दृष्टिपात करके वे सब-के-सब अत्यन्त आश्चर्यचकित हो उठे। उन सर्वभूतमय अजन्मा जगदीश्वर को देखकर सम्पूर्ण देवताओं तथा ब्रह्मर्षियों ने धरती पर मस्तक टेक दिये। तब भगवान शंकर ने ‘तुम्हारा कल्याण हो ‘ऐसा कहकर उनका समादार करते हुए उनको उठाया और मुसकराते हुए कहा- ‘बोलो,बोलो;क्या है। भगवान त्रिलोचन की आज्ञा पाकर स्वस्थचित्त हुए वे देवगण इस प्रकार उनकी स्तुति करने लगे- ‘प्रभो ! आपको नमस्कार है,नमस्कार है,नमस्कार है। ‘आप देवताओं के अधिदेवता,धनुर्धर और वनमालाधारी हैं। आपको नमसकार है। आप दक्ष प्रजापति के यज्ञ का विध्वंस करने वाले हैं,प्रजापति भी आपकी स्तुति करते हैं,सबके द्वारा आपकी ही स्तुति की गयी है,आप ही स्तुति के योग्य हैं तथा सब लोग आपकी ही स्तुति करते हैं। आप कल्याण स्वरूप शम्भु को नमस्कार है। ‘आप विशषतः लालवर्ण के हैं,पापियों को रुलाने वाले रुद्र हैं,नीलकण्ठ और त्रिशूलधारी हैं,आपका दर्शन अमोघ फल देनेवाला है,आपके नेत्र मृगों के समान हैं तथा आप श्रेष्ठ आयुधों द्वारा युद्ध करने वाले हैं। आपको नमस्कार है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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