महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 34 श्लोक 139-158
चतुस्त्रिंश (34) अध्याय: कर्ण पर्व
शत्रुसूदन ! इसी प्रकार प्रसन्न हुए भगवान शिव ने देवताओं और पितरों के समक्ष भी बारंबार प्रसन्नता पूर्वक उनके गुणों का वर्णन किया। इन्हीं दिनों की बात हैं,दैत्य लोग महान् बल से सम्पनन हो गये थे। वे दर्प और मोह आदि के वशीभूत हो उस समय देवताओं को सताने लगे। तब सम्पूर्ण देवताओं ने एकत्र हो उन्हें मारने का निश्चय करके शत्रुओं के वध के लिये यत्न किया;परंतु वे उन्हें जीत न सके। तत्पश्चात् देवताओं उमावल्लभ महैश्वर समीप जाकर भक्तिपूर्वक उन्हें प्रसन्न किया और कहा- ‘प्रभो ! हमारे शत्रुओं का संहार कीजिये। तब कल्याणकारी महादेवजी ने देवताओं के समक्ष उनके शत्रुओं का संहार करने की प्रतिज्ञा करके भृगुनन्दन परशुराम को बुलाकर इस प्रकार कहा-। ‘भार्गव ! तुम तीनों लोकों के हित की इच्छा से तथा मेरी प्रसन्नता के लिये देवताओं के समस्त समागत शत्रुओं का वध करो ‘। उनके ऐसा कहने पर परशुराम ने वरदायक भगवान त्रिलोचन को इस प्रकार उत्तर दिया।
परशुराम बोले-देवेश्वर ! मैं तो अस्त्रविद्या का ज्ञाता नहीं हूँ। फिर युद्ध स्थल में अस्त्रविद्या के ज्ञाता तथा रणदुर्मद समस्त दानवों का वध करने के लिये मुझमें क्या शक्ति है ?
महैश्वर ने कहा-राम ! तुम मेरी आज्ञा से जाओ। निश्चय ही देव-शत्रुओं का संहार करोगे। उन समस्त वैरियों पर विजय पाकर प्रचुर गुण प्राप्त कर लोगे। उनकी यह बात सुनकर उसे सब प्रकार से शिरोधार्य करके परशुराम स्वस्तिवाचन आदि मंगलकृत्य करने के पश्चात् दानवों का सामना करने के लिये गये और महान् दर्प एवं बल से सम्पन्न उन देवशत्रुओं से इस प्रकार बोले-। ‘युद्ध के मद में उन्मत्त रहने वाले दैत्यों ! मुझे युद्ध प्रदान करो। महान् असुरगण ! मुझे देवाधिदेव महादेवजी ने तुम्हें परास्त करने के लिये भेजा है। भृगुवंशी परशुराम के ऐसा कहने पर दैत्य उनके साथ युद्ध करने लगे। भार्गवनन्दन राम ने समरांगण में वज्र और विद्युत के समान स्पर्शवाले प्रहारों द्वारा उन दैत्यों का वध कर डाला। साथ ही उन द्विजश्रेष्ठ जमदग्निकुमार के शरीर को भी दानवों ने क्षत-विक्षत कर दिया। परंतु महादेवजी के हाथों का स्पर्श पाकर परशुरामजी के सारे घाव तत्काल दूर हो गये। परशुराम के उस शत्रुविजयरूपी कर्म से भगवान शंकर बड़े प्रसन्न हुए। उन देवाधिदेव त्रिशूलधारी भगवान शिव ने बड़ी प्रसन्नता के साथ महात्मा भार्गव को नाना प्रकार के वर प्रदान किये। उन्होंने कहा‘भृगुनन्दन ! दैत्यों के अस्त्र-शस्त्रों के आघात से तुम्हारे शरीर में जो चोट पहुँची है,उससे तुम्हारा मानवों चितकर्म नष्ट हो गया (अब तुम देवताओं के ही समान हो गये);अतः मुझसे अपनी इच्छा के अनुसार दिव्यास्त्र ग्रहण करो।
दुर्योधन कहता है-राजन् ! तब राम ने भगवान शिव से समस्त दिव्यास्त्रऔर नाना प्रकार के मनोवांछित वर पाकर उनके चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया। फिर वे महातपस्वी परशुराम देवेश्वर शिव से आाज्ञा लेकर चले गये। राजन् ! इस प्रकार यह पुरातन वृत्तान्त उस समय ऋषि ने मेरे पिताजी से कहा था। पुरुषसिंह ! भृगुनन्दन परशुराम ने भी अत्यन्त प्रसन्न हृदय से महामना कर्ण को दिव्य धनुर्वेद प्रदान किया है। भूपाल ! यदि कर्ण में कोई पाप या दोष होता तो भृगुनन्दन परशुराम इसे दिव्यास्त्र न देते।
« पीछे | आगे » |